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महावीर वाणी
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४. सयणस्स परियणस्स य मज्झे एक्को रुजंतओ दुहिदो । वज्जदि मच्चुवसगदो ण जणं कोई समं एदि । । (मू० ६६८)
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स्वजन और परिजनों के मध्य में अकेला ही रोगी और दुखी हुआ जीव मृत्यु के वश में पड़ा परलोक को गमन करता है। उसके साथ कोई नहीं जाता।
५. आघातकिच्चमाहेउं णाइओ विसएसिणो ।
अणे हरंति तं वित्तं कम्मी कम्मेहि किच्चती । ।
( सू० १, ६ : ४) दाह-संस्कारादि अन्तिम क्रियाएँ करने के बाद विषयैषी ज्ञाति और अन्य लोग उसके धन को हर लेते हैं और पाप कर्म करनेवाला अकेला ही अपने किए हुए कृत्यों द्वारा संसार में पीड़ित होता है।
६. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्का सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेवं अणुजाई कम्मं ।। ( उ० १३ : २३)
ज्ञाति-सम्बन्धी, मित्र-वर्ग, पुत्र और बांधव मनुष्य के दुःख में भाग नहीं बँटाते । उसे स्वयं अकेले को ही दुःख भोगना पड़ता है। कर्म करनेवाले का ही पीछा करता है, उसे ही कर्म फल भोगना पड़ता है।
७. चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ परं भवं सुंदर पावगं वा ।
द्विपद और चतुष्पद, क्षेत्र और गृह, धन और धान्य- इन सबको छोड़कर पराधीन जीव केवल अपने कर्मों को साथ लेकर ही अकेला अच्छे या बुरे पर-भव में जाता है।
८.
एगभूओ अरण्णे वा जहा उ चरई मिगो ।
एवं धम्मं चरिस्सामि संजमेण तवेण य ।।
( उ० १३ : २४)
(उ० १६ : ७७)
मनुष्य सोचे-जैसे मृग अरण्य में अकेला चर्या करता है, उसी तरह मैं चारित्ररूपी वन में तप और संयम से एकीभूत होकर धर्म का पालन करता हुआ विहार करूँगा ।
६. जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सो णेइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं
सुयणो ।
कुणइ । ।
(द्वा० आ० ७८ )
इस जीव का स्वजन निश्चय से एक उत्तम क्षमादि से युक्त दशलक्षण धर्म ही है। धर्म ही मनुष्य को देवलोक में ले जाता है और वही सर्व दुःखों का क्षय करता है।