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________________ २२६ ३१. भावनायोग एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य।। अप्पाणं तारइस्सामि तुभेहिं अणुमन्निओ।। (उ० १६ : २२-२३) (संकल्प करो)-जैसे घर में आग लगने पर गृहपति सार वस्तुओं को निकालता है और असार को छोड़ देता है, उसी तरह जरा और मरणरूपी अग्नि से जलते हुए इस संसार में से अपनी आत्मा का उद्धार करूँगा। २०. अत्थि एगो महादीवो वारिमज्झे महालओ। महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई।। (उ० २३ : ६६) उदधि के बीच एक विस्तृत महाद्वीप है, जहाँ पर महान् उदक-समुद्र के प्रवाह की पहुँच नहीं होती। २१. जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं ।। (उ० २३ : ६८) जरा और मरणरूपी जल के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। ४. एकत्व भावना १. एक्को करेइ कम्मं एक्को हिंडदि य दीहसंसारे। एक्को जायदि मरदि य एवं चिंतेहि एयत्तं ।। (मू० ६६६) यह जीव अकेला ही शुभ-अशुभ कर्म करता है, अकेला ही दीर्घ संसार में भटकता है, अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। इस तरह एकत्व भावना का तुम चिंतन करो। २. ससारमावन्न परस्स अट्टा साहारण ज च करेइ कम्म। कम्मस्स ते तस्स उ वेय-काले न बंधवा बंधवयं उति।। (उ० ४ : ४) संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो साधारण कर्म करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते। ३. पावं करेदि जीवो बंधवहेदुं सरीरहे, च।। णिरयादिसु तस्स फलं एक्को सो चेव वेदेदि।। (भग० आ० १७४७) यह जीव बांधवों के लिए और शरीर के लिए पाप करता है किन्तु उस पाप का फल नरकादि गतियों में वह अकेला ही भोगता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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