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महावीर वाणी हे प्राणियों ! तुम मोह के माहात्म्य को देखो कि पाप कर्म के वश से राजा भी विष्टा का कीड़ा हो जाता है और वहीं पर रति मानता है, क्रीड़ा करता है। १३. मम पुत्तं मम भज्जा मम धण-धण्णोत्ति तिव्वकंखाए। चइऊण धम्मबुद्धिं पच्छा परिपडदि दीहसंसारे ।।
(कुन्द० अ० ३१) मेरा पुत्र, मेरी स्त्री, मेरा धन-धान्य-इस प्रकार की तीव्र लालसा से धर्म-बुद्धि को त्यागकर बाद में वह जीव दीर्घ संसार में भटकता है। १४. मिच्छोदयेण जीवो जिंदतो जोण्णभासियं धम्मं ।
कुधम्म-कुलिंग-कुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे।। (कुन्द० अ० ३२)
मिथ्यात्व के उदय से यह जीव जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए धर्म की निन्दा करता है, और कुधर्म, कुलिंग और कुतीर्थ को मानता हुआ संसार में भ्रमण करता है। १५. जत्तेण कुणइ पावं विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो। मोहंधयारसहिओ तेण दु परिपडदि संसारे।।
(कुन्द० अ० ३४) मोहरूपी अंधकार में पड़ा हुआ जीव विषयों के लिए रात-दिन प्रयत्नपूर्वक पाप करता है और उससे संसार में भ्रमण करता है। १६. विसयवसादो सुक्खं जे स तेसि कुदो तित्ती। (द्वा० अ० ५६)
जिनके सुख विषयों के आधीन हैं उनकी कैसे तृप्ति हो सकती है ? १७. इय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊणं।
तं झायह ससरूवं संसरणं जेण णासेइ।। (द्वा० अ० ७३)
इस तरह संसार को जानकर सब तरह के प्रयत्नपूर्वक मोह को छोड़कर उस आत्म-स्वरूप का ध्यान करो जिससे संसार-परिभ्रमण का अन्त हो। १८. मच्चुणाऽब्भाहओ लोगो जराए परिवारिओ। ' अमोहा रयणी वुत्ता एवं ताय ! वियाणह।। (उ० १४ : २३)
जानो-यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है, जाते हुए रात-दिन अमोघ हैं। १६. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू।
सारभण्डाणि नीणेइ असारं अवउज्झइ ।।