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________________ ३१. भावनायोग २२७ सब भवों-जन्मों में-मैंने दुःख ही दुःख भोगा है। वहाँ निमेष-काल के अन्तर जितनी भी सुखमय अनुभूति नहीं है। ७. संजोगविप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्खं च। संसारे भूदाणं होदि हु माणं तहावमाणं च।। (कुन्द० अ० ३६) संसार में प्राणियों को संयोग-वियोग, लाभ-हानि, दुःख-सुख और मान-अपमान प्राप्त होते रहते हैं। ८. एवं सठ्ठ-असारे संसारे दुक्खसायरे घोरे। किं कत्थ वि अस्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्चयदो।। (द्वा० अ०६२) इस प्रकार सब प्रकार से असार दुःख के सागर भयानक संसार में निश्चय से विचार किया जाय तो क्या कहीं भी कुछ सुख है ? ६. एवं मणुयगदीए णाणादुक्खाइं विसहमाणो वि। ण वि धम्मे कुणदि मई आरंभं णेय परिचयइ।। (द्वा० अ०५५) इस तरह मनुष्यगति में अनेक प्रकार के दुःखों को सहता हुआ भी मनुष्य धर्माचरण में बुद्धि नहीं करता है और पापारंभ को नहीं छोड़ता है। १०. एक्कं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहुवारं ।। एवं जं संसरणं णाणादेहेस होदि जीवस्स। सो संसारो भण्णदि मिच्छकसाएहिं जुत्तस्स ।। (द्वा० अ० ३२-३३) मिथ्यात्व और कषाययुक्त इस जीव का जो अनेक शरीरों में संसरण-भ्रमण होता है वह संसार कहलाता है। यह जीव एक शरीर को छोड़ता है, फिर नवीन (शरीर) को ग्रहण करता है, फिर अन्य-अन्य शरीरों को कई बार ग्रहण करता है और छोड़ता है। यह ही संसार कहलाता है। ११. सो को वि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स। जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ।। (द्वा० अ०६८) समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है जहाँ ये सब ही संसारी जीव कई बार उत्पन्न न हुए हों तथा न मरे हों। १२. दुक्कियकम्मवसादो राया वि य असुइकीडओ होदि। तत्थेव य कुणइ रई पेक्खह मोहस्स माहप्पं ।। (द्वा० अ० ६३)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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