________________
२२६
१५. सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं च सत्तवो चेव । चउरो चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं । ।
(कुन्द० अ० १३ )
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये चारों भी आत्मा में ही हैं। इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है।
३. संसार भावना
१. जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसंति जंतवो ।।
(उ० १६ : १५)
यहाँ जन्म का दुःख है, जरा का दुःख है, रोगों का दुःख है, मरण का दुःख है । अहो ! यह संसार दुःखरूप ही है, जहाँ बेचारे प्राणी नाना प्रकार के क्लेश पाते हैं। चेव वेयणाओ अनंतसो ।
२. सारीरमाणसा
मए सोढाओ भीमाओ असई दुक्खभयाणि य ।।
३. जरामरणकंतारे ' चाउरंते
भयागरे । म सोढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणि य । ।
महावीर वाणी
इस आत्मा ने अनन्त भयानक शरीरिक और मानसिक वेदनाएँ भोगी हैं और अत्यन्त दुःख और भय से वह बार-बार पीड़ित हुई है।
४. निच्चं भीएणे तत्थेण दुहिएण वहिएण य ।
परमा दुहसंबद्धा वेयणा वेइया मए ।।
(उ० १६ :
(उ० १६ : ४६)
इस जन्म-मरणरूपी कांतार और चार गतिरूप अन्तवाले भय के धाम में मैंने अनन्त बार भयंकर दुःखपूर्ण जन्म और मरण सहे हैं।
५. जारिसा माणुसे लोए ताया ! दीसंति वेयणा ।
तो अनंतगुणिया नरएसु दुक्खवेयणा ||
४५)
(उ० १६ : ७१)
अत्यन्त भय, त्रास, दुःख और व्यथा का अनुभव करते हुए मैंने नित्य घोर दुःखदायी वेदनाएँ अनुभव की हैं।
६. सव्वभवेसु अस्साया वेयणा वेइया मए । निमेसंतरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा । ।
(उ० १६ : ७३)
मनुष्य लोक में जैसी वेदना दिखाई देती है, उससे अनन्तगुणी दुःखदायी वेदना
नरक में है।
(उ०१६ : ७४)