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३१. भावनायोग
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८. आउक्खएण मरणं आउं दाउं ण सक्कदे को वि।
तम्हा देविंदो वि.य मरणाउ ण रक्खदे को वि।। (द्वा० अ० २८)
आयु के क्षय से मरण होता है और आयु किसी को कोई देने में समर्थ नहीं है, अतः देवेन्द्र भी मरने से किसी की रक्षा नहीं कर सकता है। ६. दंसणणाणचरित्तं सरणं सेवेण परमसद्धाए।
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ।। (द्वा० अ० ३०) ___ हे जीव ! तू परम श्रद्धा से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म का शरण ग्रहण कर। संसार में भ्रमण करते हुए जीवों के लिए अन्य कुछ भी शरण नहीं है। १०. मरणभयझि उवगदे देवावि सइंदया ण तारेंति।
धम्मो त्ताणं सरणं गदित्ति चिंतेहि सरणत्तं ।। (मू० ६६७)
मरण-भय उपस्थित होने पर इंद्रसहित सारे देव भी जीव की रक्षा नहीं कर सकते। एक धर्म ही त्राण, शरण और श्रेष्ठ गति है। इस शरण का चिंतन कर। ११. जह आइच्चमुदेंतं कोई वारेंतउ जगे णत्थि ।
तह कम्ममुदीरंतं कोई वारेंतउ जगे णत्थि ।। (भग० आ० १७४०)
जैसे लोक में कोई भी ऐसा नहीं जो उगते हुए सूर्य को रोक सकता हो, वैसे ही लोक में ऐसा कोई नहीं जो उदय में आये हुए कर्म को रोक सकता हो। १२. दंसणणाणचरित्तं तवो य ताणं च होइ सरणं च। जीवस्स कम्मणासणहेतुं कम्मे उदिण्णम्मि।।
(भग० आ० १७४६) जी के कर्मनाश के हेतु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ही हैं, इसलिए कर्म के उदय होने पर ये ही जीव के त्राण और शरण हो सकते हैं। १३. जाइ-जर-मरण-रोग-भयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा।
तम्हा आद। सरणं वंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो।। (कुन्द० अ० ११)
आत्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से आत्मा की रक्षा करता है, इसलिए कर्मों के बन्ध, उदय और सत्ता से रहित शुद्ध आत्मा ही शरण है। १४. अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी।
ते वि हु चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। (कुन्द० अ० १२)
अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाचों परमेष्ठी भी आत्मा में ही निवास करते हैं। इसलिए आत्मा ही मेरा शरण है।