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महावीर वाणी
२. वित्तं पसवो य णाइयो तं बाले सरणं ति मण्णई। एए मम तेसि वा अहं णो ताणं सरणं ण विज्जई।।
(सू० १, २ (३) : १६) मूर्ख मनुष्य धन, पशु और ज्ञानियों को अपना शरण-आश्रय-स्थल मानता है। सोचता है-'ये मेरे हैं और मैं उनका हूं'। परन्तु उनमें से कोई भी न त्राण है और न शरण। ३. अब्भागमियम्मि वा दुहे अहवोतक्कमिए भवंतिए। एगस्स गई य आगई विदुमंता सरणं ण मण्णई।।
(सू० १, २ (३) : १७) दुःख आ पड़ने पर मनुष्य अकेला ही उसे भोगता है। आयुष्य क्षीण होने पर अथवा भवान्त-मृत्यु के उपस्थित होने पर जीव अकेला ही गति-आगति करता है। विवेकी पुरुष धन, पशु आदि को शरण-रूप नहीं मानता। ४. माया पिया बहुसा भाया भज्जा पुत्ता य ओरसा।
नालं ते मम ताणाय लुप्पंतस्स सकम्मुणा।। (उ० ६ : ३)
विवेकी पुरुष सोचे-“माता, पिता, पुत्र-वधू, भाई, भार्या तथा सुपुत्र-इनमें से कोई भी अपने कर्मों से दुःख पाते हुए मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं। ५. सव्वं जगं जइ तुहं सव्वं वावि धणं भवे।
सव्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव ।। (उ० १४ : ३६)
यदि सारा जगत् और यह सारा धन भी तुम्हारा हो जाय, तो भी ये सब तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होंगे और न ये सब तुम्हारा रक्षण करने में ही समर्थ होंगे। ६. चिच्चा वित्तं च पुत्ते य णाइयो य परिग्गहं।
चिच्चाण अंतगं सोयं णिरवेक्खो परिव्वए।। (सू० १, ६ : ७)
विवेकशील मनुष्य धन, पुत्र, ज्ञाति और परिग्रह तथा अंतरशोक को छोड़कर निरपेक्ष हो संयम का अनुष्ठान करे। ७. सीहस्स कमे पडिदं सांरगं जह ण रक्खदे को वि।
तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि ।। (द्वा० अ० २४)
जैसे सिंह के पैर नीचे पड़े हुए हिरण की कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं होता वैसे ही मृत्यु के द्वारा ग्रहण किये हुए जीव की कोई भी रक्षा नहीं कर
सकता।