________________
३१. भावनायोग
२२३ १३. अथिरं परियणसयणं पुत्तकलत्तं सुमित्तलावण्णं ।।
गिहगोहणाइ सव्वं णवधणविंदेण सारित्थं ।। (द्वा० अ० ६)
परिजन, स्वजन, पुत्र, स्त्री, अच्छे मित्र, लावण्य, गृह, गोधन इत्यादि समस्त वस्तुएँ नवीन मेघ के समूह के समान अस्थिर हैं। १४. पंथे पहियजणाणं जह संजोओ हणेइ खणमित्तं । ___ बंधुजणाणं च तहा संजोओ अधुओ होइ।। (द्वा० अ० ८)
जैसे मार्ग में पथिक जनों का संयोग क्षण-मात्र होता है वैसे ही बंधु जनों का संयोग अस्थिर होता है। १५. अइलालिओ वि देहो ण्हाणसुयंधेहिं विविहभक्खेहिं ।
खणमित्तेण वि विहडइ जलभरिओ आमघडओ व्वं ।। (द्वा० अ० ६)
स्नान तथा सुगंधित पदार्थों से सजाया हुआ, अनेक प्रकार के भोजनादि भक्ष्य पदार्थों से अत्यंत लालन पालन किया हुआ यह देह भी जल से भरे हुए कच्चे घड़े की तरह क्षण-मात्र में ही नष्ट हो जाता है। १६. जलबुब्बयसारिच्छं धणजोव्वणजीवियं पि पेच्छंता।
मण्णंति तो वि णिच्चं अइबलिओ मोहमाहप्पो।। (द्वा० अ० २१)
धन, यौवन, जीवन को जल के बुदबुदे के समान देखते हुए भी मनुष्य उन्हें नित्य मानता है, यह बड़ा आश्चर्य है। मोह का माहात्म्य अति बलवान है। १७. चइऊण महामोहं विसए मणिऊण भंगरे सवे।
णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहइ।। (द्वा० अ० २२)
समस्त विषयों को विनाशशील सुनकर, महामोह को छोड़कर अपने मन को विषयों से रहित करो, जिससे उत्तम सुख को प्राप्त कर सको।
२. अशरण भावना १. जहेह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तम्मिंसहरा भवंति।।
(उ० १३ : २२) निश्चय ही अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को वैसे ही पकड़कर ले जाती है, जैसे सिंह मृग को। अन्तकाल के समय माता, पिता या भाई कोई भी उसके भागीदार नहीं होते।