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________________ २२२ महावीर वाणी ६. उवणिज्जई जीवियमप्पमायं वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं। पंचालराया ! वयणं सुणाहि मा कासि कम्माइं महालयाई।। (उ० १३ : २६) राजन् ! कर्म बिना भूल किए (निरन्तर) जीवन को मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण (सुस्निग्ध कांति) का हरण कर रहा है। पंचाल-राज ! मेरा वचन सुन ! प्रचुर कर्म मत कर। ७. जया सव्वं परिच्चज्ज गन्तव्वमवसस्स ते। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि।। (उ० १८ : १२) हे राजन् ! सब चीजों को छोड़कर तुम्हें एक दिन परवशता से अवश्य जाना है, फिर इस अनित्य लोक में इस राज्य पर तुम्हें आसक्ति क्यों है ? ८. जीवियं चेव रूवं च बिज्जुसंपायचंचलं। जत्थ तं मुज्झसि रायं पेच्चत्थं नावबुज्झसे।। (उ० १८ : १३) जिसमें तुम मूच्छित हो रहे हो-वह जीवन और रूप विद्युत-सम्पात की तरह चंचल है। हे राजन् ! परलोक में क्या अर्थकारी (हितकर) है यह क्यों नहीं समझते? ६. सामग्गिंदियरूवं आरोग्गं जोव्वणं बलं तेज।। सोहग्गं लावण्णं सुरधणुमिव सस्सयं ण हवे ।। (कुन्द० अ० ४) समस्त इद्रियाँ, रूप, आरोग्य, यौवन, बल, तेज, सौभाग्य, लावण्य ये सब शाश्वत नहीं हैं, किन्तु इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं। १०. जीवणिबद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्छ । भोगोपभोगकारणदव् णिच्चं कहं होदि।। (कुन्द० अ० ६) जब जीव से सम्बद्ध शरीर ही दूध में मिले जल की तरह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, तब भोगोपभोग के कारण शरीर से भिन्न जो द्रव्य हैं वे कैसे नित्य हो सकते हैं ? ११. जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण। परिणामसरूवेण वि ण य किंचि वि सासयं अत्थि ।। (द्वा० अ० ४) जो कुछ भी उत्पन्न है, उसका नियम से नाश होता है। परिणामस्वरूप से तो कुछ भी नित्य नहीं है। १२. जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं । लच्छी विणाससहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह।। (द्वा० अ० ५) जन्म मरण सहित, यौवन जरा सहित, लक्ष्मी विनाश सहित उत्पन्न होती है। इस प्रकार सब वस्तुओं को क्षणभंगुर जानो।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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