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३१. भावनायोग
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१. अनित्य भावना १. अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी।।
(उ० १३ : ३१) काल बीता जा रहा है। रात्रियाँ भी भागी जा रही हैं। ये मनुष्यों के कामभोग नित्य नहीं हैं। जैसे पक्षी क्षीण फल वाले द्रुम को छोड़कर चले जाते हैं, उसी तरह कामभोग भी पुरुष को छोड़ देते हैं। २. गमाइ मिज्जंति बुआबुयाणा णरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य चयंति ते आउखए पलीणा।।
(सू० १, ७ : १०) कई जीव गर्भावस्था में ही मर जाते हैं, कई स्पष्ट बोलने की अवस्था में तथा कई बोलने की अवस्था आने के पहले ही चल बसते हैं। कई कुमार अवस्था में, कई युवा होकर, कई आधी उमर के होकर और कई वृद्ध होकर मर जाते हैं। मृत्यु हर अवस्था में आ घेरती है। ३. डहरा बुड्ढा य पासहा गब्भत्था वि चयंति माणवा। सेणे जह वट्टयं हरे एवं आउखयंमि तुट्टई।।
(सू० १, २ (१) : २) देखो ! युवक और बूढ़े यहाँ तक कि गर्भस्थ बालक तक चल बसते हैं। जैसे बाज पक्षी को हर लेता है वैसे ही आयु शेष होने पर काल जीवन को हर लेता है। ४. ठाणी विविहठाणाणि चइस्संति ण संसओ।
अणितिए अयं वासे णातिहि य सहीहि य।। (सू० १, ८ : १२) एवमायाव मेहावी अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सव्वधम्ममकोवियं ।। (सू० १, ८ : १३)
विविध स्थानों में स्थित प्राणी एक-न-एक दिन अपने स्थान को छोड़कर जाने वाले हैं-इसमें जरा भी संशय नहीं है। ज्ञाति और मित्रों के साथ यह संवास भी अनित्य है। उपर्युक्त सत्य को जानकर विवेकी पुरुष अपनी आसक्ति को हटा दे और सर्व शुभ धर्मों से युक्त मोक्ष ले जानेवाले आर्य धर्म को ग्रहण करे। ५. असासयं दुटु इमं विहारं बहुअन्तरायं न य दीहमाउं।
(उ० १४ : ७) हमने देखा है कि यह मनुष्य-जीवन अनित्य है, उसमें भी विघ्न बहुत हैं और आयु थोड़ी है।