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________________ ( : ३१ :) भावनायोग | भावना और शुद्धि १. तहिं तहिं सुयक्खायं से य सच्चे सुआहिए। सदा सच्चेण संपण्णे मेत्तिं भूतेसु कप्पए।। (सू० १, १५ : ३) वीतराग पुरुष ने भिन्न-भिन्न स्थानों में भावों का भलीभाँति कथन किया है, वही सत्य है और सुभाषित है। सदा सत्य से सम्पन्न मनुष्य सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव का आचरण करे। २. भूतेसु ण विरुज्सेज्ज एस धम्मे वुसीमओ। वुसीमं जगं परिण्णाय अस्सि जीवियभावणा।। (सू० १, १५ : ४) मनुष्य किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध-द्वेष न करे। यही संयमी पुरुष का धर्म है। संयमी पुरुष जगत् को अच्छी तरह समझकर धर्म में कथित भावनाओं (एकान्त निश्चित सत्यों) की आराधना करे। ३. भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया। . णावा व तीरसंपण्णा सव्वदुक्खा तिउट्टति।। (सू० १, १५ : ५) भावना योग से शुद्ध आत्मा जल में नाव की तरह कही गयी है। तीर को प्राप्त नाव की तरह उक्त आत्मा सर्व दुःखों से मुक्त हो जाती है। ४. से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए। अंतेण खुरो वहती चक्कं अंतेण लोट्टति ।। अंताणि धीरा सेवंति तेण अंतकरा इहं। इस माणुस्सए ठाणे धम्मारमाहिउं णरा।। (सू० १, १५ : १४, १५) जो कांक्षा (विषय-वासना) के अन्त में है (उसको पार कर चुका) वही पुरुष मनुष्य के लिए चक्षुरूप है। क्षुर (अस्तुरा) अन्त पर चलता है, चक्का-पहिया भी अन्त पर ही चलता है। धीर पुरुष भी अन्त का सेवन करते हैं (एकान्त निश्चित सत्यों पर जीवन को स्थिर रखते हैं) और इसीसे वे संसार का अन्त करते हैं। इस मनुष्य-लोक में धर्म की आराधना कर मनुष्य निष्ठितार्थ होता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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