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________________ ३०. साधक-चर्या २१६ १७. किह पुण अण्णो काहिदि उदिण्णकम्मस्स णिज्बुदिं पुरिसो। हत्थीहिं अतीरं तं मंतुं भंजिहिदि किह ससओ।। (भग० आ० १६१६) जब देव भी पुरुष के दुःख को नष्ट करने में असमर्थ हैं तो अन्य पुरुष कर्म उदय को प्राप्त मनुष्य की वेदनाओं को शांत करने में समर्थ कैसे हो सकते हैं ? जिस वृक्ष को गिराने में महाबली हाथी असमर्थ है उसे शशक कैसे गिरा सकेगा? १८. पुव्वं सयमुवभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दव् । को धारणीओ धणिदस्य देंतओ दक्खिओ होज्ज ।। (भग० आ० १६२६) तह चेव सयं पुव्वं कदस्स कम्मस्य पाककालम्मि । णायागयम्मि को णाम दुक्खिओ होज्ज जाणंता।। (भग० आ० १६२७) जैसे कोई पुरुष धनिक से ऋण लेकर धन का उपयोग करता है और जब वह धनिक यथासमय उससे धन लेता है तब क्या वह पुरुष खिन्न होता है ? उसी प्रकार पूर्वजन्म में किये हुए स्व-कर्मों के न्याय प्राप्त फलदान के समय कौन ज्ञानी पुरुष दुःखी होगा। १६. इय पुव्वकद इण मज्ज महं कम्माणुगत्ति णाऊण । रिणमुक्खणं च दुक्खं पेच्छसु मा दुक्खिओ होज्ज ।। _ (भग० आ० १६२८) जो दुःख मैं इस समय भोग रहा हूँ वह पूर्वकृत कर्म के अनुसार ही है। दुःख भोग रहा हूँ यह तो मैं ऋण-मोक्ष कर रहा हूँ, ऐसा मन में चिंतन करता हुआ तू दुःखी मत हो।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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