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११. जदि तारिसाओ तह्मे सोढाओ वेदणाओ अवसेण । धम्मोत्ति इमा सवसेण कहं सोढुं ण तीरेज्ज ।।
(भग० आ० १६०४)
ऐसी घोर वेदनाएँ भी तुमने परवशता में सही हैं तब अपने-आप अंगीकार किए हुए इन कष्टों को सहना धर्म है ऐसा मानकर स्वेच्छा से उन्हें सहन करना क्या शक्य नहीं ?
१३. रायदिकुडुंवीणं अदयाए असंजम करंताणं ।
धण्णंतरी कि कादुं ण समत्थो वेदणोवसमं ।।
महावीर वाणी
१२. पुरिसस्स पावकम्मोदएण ण करंति वेदणोवसमं ।
सुठु पउत्ताणि वि ओसधाणि अदिवीरिवाणी वि ।। (भग०आ० १६१० ) पाप कर्म के उदय से अतिशय सामर्थ्ययुक्त उत्तम औषधियाँ भी मनुष्य की वेदना का उपशम करने में असमर्थ होती हैं।
(भग०आ० १६११)
राजादि के कुटुम्बी तथा धन्वतरि वैद्य भी, असंयम और दया की उपेक्षा करते हुए भी, कर्मोदय से उत्पन्न राजा की वेदना का उपशमन करने में समर्थ नहीं होते ।
१४. कम्माई बलियाई बलिओ कम्मादु णत्थि कोइ जगे । कम्मं मलेदि हत्थीव लिणिवणं ।।
सव्वबलाई
(भग० आ० १६२१)
जगत् में कर्म अतिशय बलवान होते हैं। उनसे बलवान जगत् में अन्य कुछ नहीं है। जैसे हाथी नलिनी के वन का नाश कर देता है वैसे ही कर्म सब बलों का नाश कर देते हैं ।
१५. इच्चेवं कम्मुदओ अवारणिज्जोत्ति सुठु पाऊण ।
मा दुक्खायसु मणसा कम्मम्मि सगे उदिण्णम्मि ।। (भग०आ० १६२२)
इस प्रकार कर्म का उदय दुर्निवार है, ऐसा समझकर स्वकीय कर्म का उदय होने पर तू मन में दुःखित मत हो ।
१६. हदमाकासं मुठ्ठीहिं होइ तह कंडिया तुसा होंति । सिगदाओ पीलिदाओ धुसिलिदभुदयं च होइ जहा । ।
(भग० आ० १६२५)
जैसे आकाश को मुट्ठियों से मारना, तंदुलों के लिए भूसा कूटना, तैल के लिए बालू को यंत्र से पीसना, घी के लिए जल का मंथन करना व्यर्थ है वैसे ही दुःख निवारण के लिए शोक, विषाद आदि करना व्यर्थ है ।