________________
३०. साधक-चर्या
२१७
४. अणुस्सुओ उरालेसु जयमाणो परिव्वए।
चरियाए अप्पमत्तो पुट्ठो तत्थऽहियासए।। (सू० १, ६ : ३०)
उदार भोगों के प्रति अनासक्त रहता हुआ मुमुक्षु, यत्नपूर्वक संयम में रमण करे। धर्मचर्या में अप्रमादी हो और कष्ट आ पड़ने पर अदीन भाव से-हर्षपूर्वक सहन करे। ५. अह णं वत्तमावण्णं फासा उच्चावया फुसे।
ण तेहिं विणिहण्णेज्जा वातेण व महागिरी।। (सू० १, ११ : ३७)
जिस तरह महागिरि वायु के झोंके से कंपित नहीं होता, उसी तरह व्रतप्रतिपन्न पुरुष सम-विषम, ऊँच-नीच, अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों के स्पर्श करने पर धर्म-च्युत नहीं होता। ६. जइ उपज्जइ दुःखं तो दट्ठब्बो सभावदो णिरये।
कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण ।। (मू० ७८)
यदि दुःख उत्पन्न हो तो नरक के स्वरूप का चिंतन करना चाहिए। 'जन्म-जरामरण रूप संसार में भ्रमण करते हुए मैंने कौन से दुःख नहीं पाये'-ऐसा सोचना चाहिए। ७. रिणमोयणं व मण्णइ जो उवसग्गं परीसह तिव्वं ।
पावफलं मे एवं मया वि जं संचिदं पुव्वं ।। (द्वा० अ० ११०)
जो पुरुष उपसर्ग तथा तीव्र परीषह को ऋण की तरह मानता है वह जानता है-“उपसर्ग मेरे द्वारा पूर्वजन्म में संचित किए गये पाप कर्मों का फल है।" ८. रोगादंके सुविहिद विउलं वा वेदणं धिदिबलेण ।
तमदीणमसंमूढो जिण पच्चूहे चरित्तस्स ।। (भग०आ० १५१५)
त दीनभाव को छोड़कर मोह का त्याग करते हुए व्याधियों को तथा विपुल वेदना : को धैर्य के बल से जीत। चरित्र के शत्रु-राग-द्वेष आदि को भी जीत । ६. मेरुव् णिप्पकंपा अक्खोभा सागरुव्व गंभीरा।
धिदिवंतो सप्पुरिसा हुंति महल्लावईए वि।। (भग०आ० १५३६)
बड़ी आपत्ति आने पर भी धैर्ययुक्त सत्पुरुष मेरु के समान निश्चल-अकंप रहते हैं और समुद्र के समान क्षेत्ररहित होते हैं। १०. संखेज्जमसंखेज्जं कालं ताइं अविस्समंतेण ।
दुक्खाइं सोढाइं किं पुण अदिअप्पकालमिमं ।। (भग०आ० १६०३)
नरकादि गतियों में तुझे संख्यात-असंख्यात काल तक निरन्तर दुःख भोगना पड़ा। वह भी तूने भोगा। आज का दुःख तो अत्यन्त अल्प है और वह अतिशय अल्पकालपर्यन्त ही रहनेवाला है।