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________________ २१६ महावीर वाणी साधक देव और मनुष्य के भोगों की अभिलाषा नहीं करता है। यह विषयेच्छा मुक्तिमार्ग की विराधक कही कई है, अतः उसका त्याग करता है। ८. इठ्ठेसु अणिठेसु य सद्दफरिसरसरूवगंधेसु । इहपरलोए जीविदमणे माणावमाणे च।। (भग० आ० १६८८) इष्ट और अनिष्ट ऐसे शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श विषयों में, इहलोक और परलोक में, जीवित और मरण में, मान और अपमान में साधक सम भाव रहता है। ६. सव्वत्थ णिव्विसेसो होदि तदो रोगरोसरहिदप्पा। खवयस्स रागदोसा हु उत्तमठ्ठं विराधेति।। (भग०आ० १६८६) राग-द्वेष उत्तमार्थ का विनाश करते हैं, अतः साधक की आत्मा सर्वत्र राग-द्वेष रहित होती है। १०. एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा। मित्ती करुणं मुदिदमुवेक्खं खवओ पुण उवेदि।। (भग०आ० १६६५) इस प्रकार सम्पूर्ण वस्तुओं में समता भाव को प्राप्त विशुद्ध अतःकरण वाला साधक मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना को प्राप्त करता है। ४. कष्ट और चिन्तन १. कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं पेमं नाभिनिवेसए। . दारुणं कक्कसं फासं काएण अहियासए।। (द० ८ : २६) मुमुक्षु कानों को प्रिय लगने वाले शब्दों में प्रेम न करे तथा दारुण और कर्कश स्पर्शों को काया से समभावपूर्वक सहन करे। २. खुहं पिवासं दुस्सेज्जं सीउण्हं अरई भयं । अहियासे अविहिओ देहे दुक्खं महाफलं ।। (द० ८ : २७) क्षुधा, प्यास व दुःशय्या, सर्दी, गर्मी, अरति, भय-इन सब कष्टों को मुमुक्ष अव्यथित चित्त से सहन करे। समभाव से सहन किए गये दैहिक कष्ट महाफल के हेतु होते हैं ३. ण वि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंती लोगंसि पाणिणो। एवं सहिएऽहियासए, अणिहे से पुढेऽहियासए।। (सू० १, २ (१) : १३) ज्ञानी इस प्रकार देखे-"मैं ही इन सब कष्टों से पीड़ित नहीं हूँ, परन्तु लोक में अन्य प्राणी भी इनसे पीड़ित होते हैं ऐसा सोचकर कष्ट पड़ने पर वह उन्हें अम्लान मन से सहन करे।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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