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________________ ३०. साधक-चर्या २१५ ३. समभाव १. चरणं हवई सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो। सो रागरोसरहिओ जीवस्य अणण्णपरिणामो।। (मो० पा० ५०) चरित्र ही स्व-धर्म है। आत्मसम-भाव-सर्व जीवों के प्रति आत्मवत भाव ही धर्म है। राग-द्वेष रहित जीव का अनन्य परिणाम समभाव है। २. जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो। तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अण्णविहो।। (मो० पा० ५१) जैसे स्फटिक मणि विशुद्ध होने पर भी पर द्रव्य से युक्त होने पर अन्य हो जाता है वैसे ही रागादि से युक्त जीव अन्य प्रकार का होता है। ३. सव्वत्थ अपडिबद्धो उवेदि सव्वत्थ समभावं। (भग० आ० १६८३) साधक शरीर आदि सब वस्तुओं में ममत्वरहित हो सर्वत्र समभाव प्राप्त करता है। ४. सव्वेसु दव्वपज्जयविधीसु णिच्चं ममत्तिदो विजडो। णिप्पणयदोसमोहो उबेदि सव्वत्थ समभावं।। (भग० आ० १६८४) सर्व द्रव्य और उनके पर्याय-भेदों में साधक सदा ममतारहित होता है। वह स्नेह, मोह और द्वेषरहित होकर सर्वत्र समताभाव धारण करता है। ५. संजोगविप्पओगेसु जहदि इठ्ठेसु वा अणिठेसु। रदि अरदि उस्सुगत्तं हरिसं दीणत्तणं च तहा।। (भग० आ० १६८५) वह संयोग-वियोग में, इष्ट-अनिष्ट में, रति, अरति, उत्सुकता, हर्ष और दीनभाव का त्याग करता है। ६. मित्तेसुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि । रागं वा दोसं वा पुलं जायंपि सो जहइ ।। (भग०आ० १६८६) मित्र, स्वजन आदि शिष्य और साधार्मिक के प्रति जो भी राग-द्वेष हुआ हो उसका वह त्याग करता है। ७. भोगेसु देवमाणुस्सगेसु ण करेइ पच्छणं खवओ। मग्गो विराधणाए भणिओ · विसयाभिलासोत्ति।। (भग आ० १६८७)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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