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________________ २१४ महावीर वाणी ४. भयमागच्छसु संसारादो पीदिं च उत्तमम्मि । सोगं च पुरादुच्चरिदादो जिंदाविजयहेदूं ।। (भग० आ० १४४२) निद्रा-विजय के लिए तू संसार से भययुक्त हो, उत्तमार्थ-रत्नत्रय की आराधना मे प्रीतियुक्त हो और पूर्वकृत पापों के विषय में मन में शोक कर। ५. जागरणत्थं इच्चेवमादिकं कुण कमं सदा उत्तो। _ झाणेण विणा बंज्झो कालो हु तुमे ण कायव्वो।। (भग०अ० १४४३) जागरण के लिए इत्यादिक उपर्युक्त क्रम तू सदा सावधानीपूर्वक कर । ध्यान के बिना एक समय भी नष्ट करना योग्य नहीं। ६. संसाराडविणित्थरणमिच्छदो अणपणीय दोसाहिं। सोदुं ण खमो अहिमणपणीय सोदुं व सघरम्मि।। (भग० आ० १४४४) संसाररूपी जंगल में से निकलने की इच्छा रखनेवाले पुरुष का दोषों को बिना दूर किये ही सोना योग्य नहीं है। क्या सर्प को घर में से बाहर निकाले बिना ही सोना योग्य है ? ७. को णाम णिरुब्वेगो लोगे मरणादिअग्पिज्जलिदे। पज्जलिदम्मि व णाणि घरम्मि सोढुं अभिलसिज्ज।। (भग० आ० १४४५) मरणादि-रूप अग्नि से प्रज्वलित इस लोक में कौन उद्वेग-रहित है ? कौन ज्ञानी पुरुष अग्नि से घर प्रज्वलित होने पर सोने की इच्छा करेगा ? ८. को णाम णिरुव्वेगो सुविज्ज दोसेसु अणुवसंतेषु। गहिदाउहाण बहुयाण मज्झयारे व सत्तूणं ।। (भगआ० १४४६) जिन्होंने हाथों में शस्त्र धारण कर रखे हैं उन अनेक शत्रुओं के बीच कौन निर्भय रह सकता है ? रागादि दोषों में शांत न होने की अवस्था में कौन निश्चित होकर सोयेगा? ६. णिद्दा तमस्स सरिसी अण्णो णत्थि हु तमो मणुस्साणं। इदि णच्चा जिणसु तुमं णिद्दा ज्झणस्स विग्घयरी।। (भग० आ० १४४७) मनुष्यों के लिए निद्रारूपी अंधकार के समान जगत् में अन्य कोई अंधकार नहीं है। ऐसा समझकर ध्यान में विघ्न डालनेवाली इस निद्रा को तुम जीतो।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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