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________________ ३०. साधक-चर्या २१३ ज्ञानी ठण्डा, गर्म, सूखा, रूखा, स्निग्ध, शुद्ध, नमक सहित अथवा बिना नमक का आहार स्वाद न लेते हुए खाता है। ६. अक्खोमक्खणमुत्तं भुजंति मुणी पाणधारणणिमित्तं। पाणं धम्मणिमित्तं धम्मपि चरंति मोक्खठें।। (मू० ८१५) गाड़ी की धुरी को चुपड़ने के समान प्राणों के धारण के निमित्त ही ज्ञानी आहार करते हैं। वे प्राणों को धर्म के निमित्त और धर्म को मोक्ष के निमित्त धारण करते हैं। ७. पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं । नरस्तऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा।। (उ० १६ : १२, १३) स्निग्ध, रसदार भक्त-पान तथा अति मात्रा में भक्त-पान आत्मगवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष की तरह होता है। ८. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्ढणं। (उ० १६ : ७) साधक के लिए विषय-विकार को शीघ्र बढ़ानेवाला प्रणीत भक्त-पान वर्जनीय है। २. निद्रा-जय १. णिदं जिणेहि णिच्चं णिद्दा खलु णरमचेदणं कुणदि। वट्टेज्ज हू पसूतो समणी सव्वेसु दोसेसु।। (मू० ६७२) __ तू सदा निद्रा को जीत ! निन्द्रा जीव को अचेतन करती है। प्रसुप्त मनुष्य सब दोषों में वर्तन करता है। २. जदि अधिवाधिज्ज तुमं णिद्दा तो तं करेहि सज्झायं। सुहुमत्थे वा चिंतेहि सुणव संवेगणिव्वेगं ।। (भग० आ० १४४०) यदि निद्रा तुम्हें सतावे तो तू स्वाध्याय कर, सूक्ष्म अर्थों का विचार कर, संवेग और निर्वेद उत्पन्न करनेवाली कथाओं को सुन।। ३. पीदी भए य सोगे य तहा णिद्दा ण होइ मणुयाणं। एदाण तुमं तिण्णिवि जागरणत्थं णिसेवेहिं ।। (भग० आ० १४४१) प्रीति, भय और शोक इनमें से कोई भी होने पर निद्रा नहीं आती है। अतः निद्रा को जीतने के लिए तू प्रीति आदि का सेवन कर।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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