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( : ३० :) साधक-चर्या
१. हित-मित आहार १. रसा पगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं। दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति दुमं जहा साउफलं व पक्खी।।
(उ० ३२ : १०) रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। रस प्रायः मनुष्यों की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। जिसकी धातुएँ उद्दीप्त होती हैं उसे काम-भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। २. जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ। एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो न बम्भयारिस्स हियाय कस्सई।।
(उ० ३२ : ११) जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी प्रकार दूंस-ठूसकर खाने वाले पुरुष की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शान्त नहीं होती। इसलिए अति भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता। ३. ण बलाउसाउअटुं ण सरीरस्सुवचयट्ठ तेजठें।
णाणट्ठ संजमठं झाणठें चेव भुंजेज्जो।। (मू० ४८१)
साधक बल के लिए, आयु के लिए, स्वाद के लिए, शरीर की पुष्टि के लिए, तेज के लिए भोजन नहीं करते, किन्तु वे ज्ञान के लिए, संयम के लिए तथा ध्यान के लिए ही भोजन करते हैं। ४. जमणझैं भुंजंति य णवि य पयामं रसट्ठाए। (मू० ८१०) ___ साधक स्वाध्याय में प्रवृत्ति के लिए आवश्यक हो उतना मात्र ही आहार करते हैं, स्वाद के लिए बहुत आहार नहीं करते।। ... ५. सीदलमसीदलं वा सुक्कं लुक्खं सुणिद्ध सुद्धं वा।
लोणिदमलोणिदं वा भुजंति मुणी अणासाद।। (मू० ८१४)