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२६. स्वगत-चिन्तन ४. धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेणवि अवस्स मरिदव्वं ।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं ।। (मू १००)
धीर पुरुष भी मरता है और अधीर पुरुष भी अवश्य मरता है। जब दोनों ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तब मेरे लिए श्रेष्ठ यही है कि धैर्य के साथ मरूँ। ५. सीलेणवि मरिदव् णिस्सीलेणवि अवस्स मरिदव्वं । ..
जइ दोहिंवि मरियव्वं वरं हु सीलत्तणेण मरियव्वं ।। (मू० १०१)
शील से सम्पन्न मनुष्य भी मरता है और शीलरहित मनुष्य भी अवश्य मरता है। जब दोनों ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तब मेरे लिए श्रेष्ठ यही है कि शील-सहित मृत्यु को वरण करूँ। ६. जा गदी अरिहंताणं णिट्ठिदट्ठाण जा गदी।
जा गदी वीनमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा।। (मू० १०७)
जो गति अर्हतों को प्राप्त हुई है, जो गति सिद्धों को प्राप्त हुई है, जो गति वीतरागों को प्राप्त हुई है वही शाश्वत गति मेरी भी हो।