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________________ २१० १३. णाणम्हि दंसणम्हि य तवे चरिते य चउसुवि अकंपो । आगमकुसलो अपरस्सावी धीरो रहस्साणं ।। (मू० ५७) जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप - इन चार आचार में अकंप (दृढ़) हो, जो धीर, आगम-कुशल और रहस्य में की गयी आलोचना को प्रगट करनेवाला नहीं हो उसी के पास आलोचना करनी चाहिए । १४. रागेण व दोसेण व जं मे अकदण्डुयं पमादेण । जो मे किंचिवि भणिओ तमहं सव्वं खमावेमि । । महावीर वाणी (मू० ५८) राग अथवा द्वेष के वश मैंने कोई अकृतज्ञता की हो अथवा प्रमाद के कारण मैंने किसी को अनुचित कहा हो तो मैं उन सब से क्षमा चाहता हूँ । १५. जं जं मणेण बद्धं जं जं वायाए भासिअं पावं । जं जं कएण कयं मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ।। (पंच० प्र० संथारा सूत्र) मैंने जो-जो पाप मन से विचारे हैं, वाणी से बोले हैं और शरीर से किए हैं, वे मेरे सब पाप मिथ्या हों । २. मृत्यु-भय और चिन्तन १. सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य । अणयारभंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणी । । (मू० ७४) शस्त्र - घात, विष- भक्षण, अग्नि प्रवेश और जल-प्रवेश द्वारा अथवा अनाचार उत्पन्न करनेवाली वस्तु के सेवन द्वारा होनेवाले मरण, जन्म और मृत्यु की परंपरा को बढ़ानेवाले होते हैं। २. अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराई मरिओसि । भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ।। ( भा० पा० ३२ ) हे जीव ! इस संसार में तू पहले अनेक जन्मांतरों में कु-मरण से मरा है। अब तो जरा और मरण के विनाश करनेवाले सु-मरण की भावना कर । ३. लद्धं अलद्वपुव्वं जिणवयणसुभासिदं अमिदभूदं । गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि ।। (मू० ६६) मुझे अलब्धपूर्व सुभाषित और अमृततुल्य जिन-वचन प्राप्त हुआ है। मैंने इसके प्रभाव से मोक्ष मार्ग को ग्रहण किया है। अब मैं मरण से नहीं डरता ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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