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२६. स्वगत- चिन्तन
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मेरी आत्मा मेरे ज्ञान में है, मेरी आत्मा मेरे दर्शन में है, मेरी आत्मा मेरे चारित्र में है, मेरी आत्मा मेरे प्रत्याख्यान में है, मेरी आत्मा मेरे संवर में है तथा मेरी आत्मा मेरे योग में है - अतः इसका त्याग कैसे कर सकता हूँ।
७. एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ ।
एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ ।।
(मू० ४७) यह जीव अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्मता है। इस अकेले के ही जन्ममरण होते हैं। सर्व कर्म-रज से रहित हो अकेला ही जीव सिद्ध (मुक्त) होता है। ८. एगो मे सस्सदों अप्पा णाणदंसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा । ।
( मू० ४८ )
ज्ञान और दर्शन लक्षणवाला एक मेरा आत्मा ही नित्य है। शेष शरीरादिक मेरे बाह्यभाव हैं। वे संयोग लक्षणवाले हैं- आत्मा के सम्बन्ध से
उत्पन्न हैं, अतः वे
विनाशशील हैं।
६. संजोयमूलं जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे ।।
(मू० ४६ )
इस जीव ने परद्रव्य के साथ संयोग के निमित्त से हमेशा दुःख- परम्परा को प्राप्त किया । इसलिए सब संयोग संबंध को मन, वचन, काया- इन तीनों से छोड़ता हूँ।
१०. अस्संजमंमण्णाणं मिच्छत्तं सव्वमेव य ममत्तिं ।
जीवेसु अजीवेसु य तं णिंदे तं च गरिहामि । ।
(मू० ५१) असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व और जीव तथा अजीवपदार्थों में ममत्व - ऐसे सब भावों की मैं निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ ।
११. णिंदामि णिंदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं । आलोचेम य सव्वं सब्भंतरबाहिरं उवहिं । ।
(मू० ५५)
मैं निन्दनीय की निन्दा करता हूँ । गर्हणीय की गर्हा करता हूँ। मैं अभ्यन्तर और बाह्य सर्व उपधि - परीग्रह की आलोचना करता हूँ।
१२. जह बालो जप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जयं भणदि ।
तह आलोचेदव्वं माया मोसं च मोत्तूण । ।
(मू० ५६)
जैसे बालक बोलता हुआ कार्य-अकार्य को सरल वृत्ति से कहता है, उसी तरह माया तथा असत्य को छोड़कर आलोचना करना उचित है।