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(: २६ :) स्वगत-चिन्तन
१. आत्मा और चिन्तन १. सव्वस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहिअनियचित्तो। सव्वे खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयं पि।।
___ (आव० ४ : ३) धर्म में स्थिर-चित्त होकर मैं भावपूर्वक-अन्तःकरण से सब जीवों से अपने अपराधों की क्षमा चाहता हूँ। अपनी ओर से मैं उनके अपराधों को क्षमा करता हूँ। २. खामेमि सव्वे जीवे सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूएस वेरं मज्झं न केणइ।। (आव० ४ : ५)
मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे भी क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मैत्री है, किसी के भी साथ मेरा वैर-विरोध नहीं है। ३. सम्मं सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि। आसाए वोसरित्ताण समाहिं पडिवज्जए।।
(मू० ४२) सब प्राणियों के प्रति मेरे मन में साम्य है, किसी के प्रति वैर-भाव नहीं है। आशातृष्णा का परित्याग कर मैं समाधि को अंगीकार करता हूँ। ४. रायबंधं पदोसं च हरिसं दीणभावयं ।
उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोसरे।। (मू० ४४)
साम्य की साधना के लिए मैं स्नेह-बंधन, द्वेष, हर्ष, दीनभाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति का परित्याग करता हूँ। ५. ममत्तिं परिवज्जामि णिम्मत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे।।' (मू० ४५)
मै निर्ममत्व में उपस्थित हो ममत्व का विसर्जन करता हूं। (साधना-पथ में) मेरी आत्मा ही मेरा आलम्बन है। शेष सबका परित्याग करता हूँ। ६. आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए।। (मू० ४६) १. भा० पा० ५७: नि० सा० ६६|