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________________ २०७ २८. लाक्षणिक ६. उवसम-खम-दमजुत्ता सरीरसक्कारवज्जिया रुक्खा। मय-राय-दोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया। (बो० पा० ५२) जो उपशम (शान्त भाव), क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह सहित है, जिसमें शरीर का संस्कार नहीं किया जाता, तैल-मर्दन नहीं किया जाता और जो मद, राग तथा द्वेष से रहित है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। ७. विवरीयमूढभावा पणट्ठ-कम्मट्ठ णट्ठमिच्छत्ता। सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। (बो० पा० ५३) जो मूढभाव-अज्ञानता से रहित है, जिसके द्वारा आठों कर्म नष्ट कर दिए जाते हैं, जिसमें मिथ्यात्व का नाश हो जाता है और जो सम्यग्दर्शन गुण से निर्मल है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। ८. तिलओसत्तणिमित्तं समबाहिरगंथसंगहो णत्थि। पावज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहिं।। (बो० पा० ५५) जिसमें तिल बराबर भी आसक्ति में कारणभूत बाह्य परिग्रह का संग्रह नहीं है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं, जैसा कि सर्वज्ञ देव ने कहा है। ६. पसु-महिल-संढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ। सज्झाय-झाण-जुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया।। (बो० पा० ५७) जिसमें पशु, स्त्री, नपुंसक की संगति और व्यभिचारियों की संगति नहीं की जाती और न स्त्री आदि की खोटी कथाएँ की जाती हैं तथा जिसमें स्वाध्याय और ध्यान में तन्मय होना होता है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। १०. तव-वय-गुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य।। सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। (बो० पा० ५८) ___ जो तप, व्रत और गुणों से शुद्ध है, संयम और सम्यक्त्व गुण से अत्यन्त निर्मल है तथा शुद्ध गुणों से शुद्ध है, उसे प्रव्रज्या कही गई है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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