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________________ २०६ महावीर वाणी १०. निद्देसवत्ती पुण जे गुरूणं सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया । । (द० ६ (२) : २३) और जो गुरु के आज्ञाकारी हैं, जो गीतार्थ हैं, जो विनय में कोविद हैं, वे इस दुस्तर संसार - समुद्र को तर कर कर्मों का क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। ११. प्रव्रज्या १. गिह-गंथ-मोह-मुक्का बावीसपरीसहाजि अकसाया । पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया । । (बो० पा० ४५) जो घर और परिग्रह के मोह से मुक्त है, जिसमें बाईस परीषहों को सहा जाता है, कषायों को जीता जाता है और जो पापपूर्ण आरम्भ से रहित है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। २. सत्तू - मित्ते व समा पसंस- णिंदा-अलद्धि-लद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। (बो० पा० ४७) जिसमें शत्रु और मित्र के विषय में समभाव है, प्रशंसा और निन्दा तथा लाभ और लाभ में समभाव है, तृण और कंचन में समभाव है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। ३. उत्तम - मज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खो । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया । । (बो० पा० ४८ ) जिसमें मुनि उत्तम और मध्यम घर में तथा दरिद्र और धनवान में भेद न करके निरपेक्ष भाव से सर्वत्र आहार ग्रहण करता है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। ४. णिग्गंधा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिद्दोसा । णिम्मम णिरहंकारापव्वज्जा एरिसा भणिया । । (बो० पा० ४६ ) जो परिग्रहरहित है, आसक्तिरहित है, मान- मदरहित है, आशारहित है, रागरहित है, दोषरहित है, ममत्वरहित है और अहंकाररहित है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं। ५. णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा । णिब्मय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया । । (बो० पा० ५०) जो स्नेहरहित है, लोभरहित है, मोहरहित है, विकाररहित है, भयरहित है, कालिमारहित है, आशा-भाव से रहित है, उसे प्रव्रज्या कहते हैं ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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