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महावीर वाणी
जिस प्रकार अंधकार का नाश करनेवाला उगता हुआ सूर्य तेज से जाज्ज्वल्यमान होता है उसी प्रकार बहुश्रुत तप-तेज से प्रकाशमान होता है।
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६. जहां से सयंभूरमणे उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुणे एवं हवइ बहुस्सुए ।।
जिस प्रकार अक्षय उदकवाला स्वयंभूरमण समुद्र विविध प्रकार होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है ।
१०. तम्हा सुयमहिट्ठेज्जा उत्तमट्ठगवेसए । जेणऽप्पाणं परं चेव सिद्धिं संपाउणेज्जासि । ।
( उ० २१ : ३२)
अतः उत्तम अर्थ की गवेषणा करनेवाला श्रुत का आश्रय ले, जिससे स्वयं को और दूसरों को सिद्धि की प्राप्ति करा सके ।
१०. शिष्य : प्राज्ञ और अप्राज्ञ
१. अणुसासणमोवायं दुक्कडस्स य चोयणं । हियं तं मन्नए पण्णो वेस होइ असाहुणो ।।
( उ०१ : २८)
प्राज्ञ शिष्य गुरु के अनुशासन रूप उपाय और असदाचरण के लिए भर्त्सना को हितकारी मानता है, किन्तु वही असाधु के लिए द्वेष का हेतु बन जाता है।
२. हियं विगयभया बुद्धा फरुसं पि अणुसासणं । वेसं तं होइ मूढाणं खंति - सोहिकरं पयं ।।
( उ० ११ : ३० )
के रत्नों से परिपूर्ण
( उ०१ : २६)
विगत-भय, बुद्धिमान शिष्य, गुरु के रूक्ष अनुशासन को भी हितकर मानते हैं, किन्तु मूर्खों के लिए वही क्षमा और चित्त-विशुद्धि का हेतु अनुशासन द्वेष का निमित्त बन जाता है।
३. खड्डुया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहा य मे कल्लाणमणुसासंतो पावदिट्ठि त्ति मन्नई ||
( उ०१ : ३८)
पापदृष्टि शिष्य गुरु द्वारा कल्याण के लिए अनुशासित किए जाने पर ऐसा मानता है- मुझे ठोकर मार दी, मुझे चपेटा लगा दिया, मुझ पर आक्रोश किया, मुझे पीटा |
४. पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साहु कल्लाण मन्नई । पावदिट्ठि उ अप्पाणं सासं दासं व मन्नई ।।
(उ० १ :
: ३६)