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२८. लाक्षणिक
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इन पाँच स्थानों (कारणों) से शिक्षा प्राप्त नहीं होती-मान से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से। ३. अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई।
अहस्सिरे सया दंते न य मम्ममुदाहरे।। नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। आकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई।। (उ० ११ : ४, ५)
आठ स्थानों (कारणों) से व्यक्ति को शिक्षाशील कहा जाता है। (१) जो हास्य नहीं करता, (२) सदा इन्द्रियों और मन का दमन करता रहता है, (३) मर्मभेदी बात नहीं कहता, (४) शीलरहित नहीं होता, (५) विषमशील (दोषयुक्त चरित्रवाला) नहीं होता, (६) अति लोलुप नहीं होता, (७) अक्रोधी होता है और (८) सत्यरत होता है, वह शिक्षाशील कहलाता है। ४. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं। पियंकरे पियंवाई. से सिक्खं लडुमरिहई।। (उ० ११ : १४)
जो नित्य गुरुकुल में वास करता है, जो योगयुक्त और तपस्वी होता है, जो प्रिय करनेवाला होता है, जो प्रियवादी होता है, वह शिक्षा प्राप्त करने के योग्य होता है। ५. विणयहीया विज्जा देंति फलं इह परे य लोगम्मि।
न फलंति विणयहीणा सस्साणि व तोयहीणाई ।। (स० सु० ४७१)
विनयपूर्वक प्राप्त की गई विद्या इस लोक तथा परलोक में शुभ फल देती है। विनय-रहित विद्या वैसे ही नहीं फलती जैसे जल बिना धान्य। ६. तम्हा सव्वपयत्ते विणीयत्तं मा कदाइ छंडेज्जा।
अप्पसुदो वि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण।। (मू० ५८६)
इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके विनयभाव को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। अल्पश्रुत पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश करता है। ७. जहा संखम्मि पयं निहियं दुहओ वि विरायइ।
एवं बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुयं ।। (उ० ११ : १५)
जिस प्रकार संख में रखा हुआ दूध दोनों ओर से सुशोभित होता है, वैसे ही बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति तथा श्रुत दोनों ओर से सुशोभित होते हैं। ८. जहा से तिमिरविद्धंसे उत्तिह्रते दिवायरे ।
जलंते इव तेएण एवं हवइ बहस्सुए।। (उ० ११ : २४)