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महावीर वाणी
- जो मेधावी मुनि उन गुणों के सागर गुरुओं के सुभाषितों को सुनकर उनके अनुसार चलता है, पाँच महाव्रतों में रत होता है, मन, वचन और काय से गुप्त होता है तथा जो क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों से रहित होता है-वह पूज्य है। १६. सक्का सहेउं आसाए कंटया अओमया उच्छहया नरेणं। अणासए जो उ सहेज्ज कंटए वईमए कण्णमए स पुज्जो।।
(द० ६ (३) : ६) उच्च कामना की आशा से मनुष्य लोहे के तीक्ष्ण काँटों को सहन करने में समर्थ हो सकता है, किन्तु कानों में बाणों की तरह चुभनेवाले कठोर वचनरूपी कांटों को जो सहन कर लेता है-वह पूज्य है। १७. समावयंता वयणाभिघाया कण्णंगया दुम्मणियं जणंति। धम्मो त्ति किच्चा परमग्गसूरे जिइंदिए जो सहई स पुज्जो।।
(द० ६ (३) : ८) ___ समूहरूप से आते हुए कठोर वचनरूपी प्रहार कान में पड़ते ही दौर्मनस्यभाव उत्पन्न कर देते हैं, किन्तु क्षमा करना परम धर्म है' ऐसा मानकर जो इन्हें समभावपूर्वक सहन कर लेता है, वह क्षमासूरों में अग्रणी और जितेन्द्रिय पुरुष पूज्य है। १८. संथारसेज्जासणभत्तपाणे अप्पिच्छया अइलाभे वि संते। जो एवमप्पाणभितोसएज्जा संतोसपाहन्न रए स पुज्जो।।
(द० ६ (३) : ५) जो संस्तारक, शय्या, आसन और भोजन-पान आदि के अधिक मिलने पर भी अल्प इच्छावाला होता है और प्रधानतः संतोष में रत होता है-इस प्रकार जो साधु अपनी आत्मा को सदा तुष्ट रखता है-वह पूज्य है।
६. अबहुश्रुत : बहुश्रुत १. जे यावि होइ निविज्जे थद्धे लुद्धे अणिग्गहे।
अभिक्खणं उल्लवई अविणीए अबहुस्सुए।। (उ० ११ : २)
जो कोई निर्विद्य-शास्त्रज्ञानरहित, अभिमानी, क्षुब्ध, अजितेन्द्रिय, बार-बार असम्बद्ध बोलनेवाला और अविनीत होता है, वह अबहुश्रुत है। २. अह पंचहिं ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लभई ।
थम्भा कोहा पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण य।। (उ० ११ : ३)