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२८. लाक्षणिक
जो जाति का मद नहीं करता, रूप का मद नहीं करता, लाभ का मद नहीं करता, श्रुत (ज्ञान) का मद नहीं करता - इस प्रकार सब मदों को विवर्जन कर जो धर्मध्यान में सदारत रहता है - वह भिक्षु है ।
११. पवेयए अज्जपयं महामुणी धम्मे ठिओ ठावयई परं पि । निक्खम्मं वज्जेज्ज कुसीललिंगं न यावि हस्सकुहए जे स भिक्खू ।। (द० १० : २० )
जो महामुनि आर्यपदों का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित रह दूसरों को स्थित करता है, जो प्रव्रजित हो कुसील - लिग्ङ का परित्याग करता है, जो दूसरों को हँसाने के लिए कुतूहल नहीं करता - वह भिक्षु है ।
१२. गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ।।
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१३. अन्नायउंछ चरई विसुद्धं जवणट्टया समुयाण च अयं नो परिदेवएज्जा लधुं न विकत्थयई स
(द० ६ (३) : ११)
गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु । सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है - वह पूज्य है।
निच्चं । पुज्जो ।।
(द० ६ (३) : ४)
जो जीवन-यापन के लिए सदा अज्ञात रह - बिना अपना परिचय दिए - विशुद्ध सामुदायिक उञ्छ की गवेषणा करता है, जो न मिलने पर खेद नहीं करता, मिलने पर श्लाघा नहीं करता - वह पूज्य है ।
१४. अलोलुए अक्कुहए अमाई अपिसुणे यावि अदीणवित्ती। नो भावए नो वि य भावियप्पा अकोउहल्ले य सया स पुज्जो ।। (द० ६ (३) : १०)
जो लोलुप नहीं है, चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, अमायी है, चुगली नहीं करता, वृत्ति में दीन नहीं है, जो दूसरों को अकुशल भावना से भावित नहीं करता, न स्वयं अकुशल भावना से भावित है और जो कुतूहल नहीं करता - वह भिक्षु है ।
१५. तेसिं गुरूण गुणसागराणं सोच्चाण मेहावि सुभासियाई । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो चउक्कसायावगए स पुज्जो ।।
(द० ६ (३) : १४)