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________________ २०० महावीर वाणी जो मुनि बार-बार व्युत्सर्ग करता है, त्यक्तदेह होता है, जो आक्रोश किए जाने, पीटे जाने या घायल किये जाने पर भी पृथ्वी के समान क्षमाशील होता है, जो निदान (फल की कामना) नहीं करता तथा जो नाच-गान आदि में उत्सुकता नहीं रखता-वह भिक्षु है। ६. अभिभूय काएण परीसहाइं समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं महब्भयं तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ।। (द० १० : १४) जो शरीर से परीषहों को जीतकर, विविध योनिरूप संसार से अपनी आत्मा का समुद्धार कर लेता है, जो जनम-मरण को महा भयंकर जानकर श्रमण-योग्य तप में रत रहता है-वह भिक्षु है। ७. हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए सजइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहियप्पा सुतत्थं च वियाणई जे स मिक्खू ।। (द० १० : १५) जोथों से संयत है, पेरों से संयत है, वाणी से संयत है, इनिद्रयों से संयत है, जो आध्यात्म में रत है, जो आत्मा से सुसमाधिस्थ है और सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है-वह भिक्षु है। अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे उंछं चरे जीविय नाभिकंखे। इड्ढि च सक्कारण पूयणं च चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ।। (द० १० : १७) जो अलोलुप है, रसों में गृद्ध नहीं है, उञ्छ की चर्या करता है, असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करता, ऋद्धि, सत्कार और पूजा की भावना का त्याग करता है तथा जो स्थितात्मा है और मायारहित है-वह भिक्षु है। ६. न परं वएज्जासि अयं कुसीले जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्णपावं अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ।। (द० १० : १८) प्रत्येक के पुण्य-पाप पृथक-पृथक् हैं, ऐसा जानकर जो दूसरे को 'यह कुशील है' ऐसा नहीं कहता, जो जिससे दूसरा कुपित हो ऐसी बात नहीं कहता, जो अपनी बड़ाई नहीं करता-वह भिक्षु है। १०. न जाइमत्ते न य रूवमत्ते न लाभमत्ते न सुएणमत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता धम्मज्याणरए जे स भिक्खू।। (द० १० : १६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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