________________
२८. लाक्षणिक
८. स भिक्षुः स पूज्यः
१. निक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा । इत्थीणं वसं न यावि गच्छे वंतं नो पडियायई जे न भिक्खू ।। (द० १० : १)
जो निष्क्रमण कर - प्रव्रज्या ले- बुद्धपुरुष के वचनों में सदा समाहित-चित्त होता है, जो स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता और जो वमन किए हुए भोगों को पुनः ग्रहण नहीं करता - वह भिक्षु है ।
२. चत्तारि वमे सया कसाए धुवयोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे । अहणे निज्जायरूवरयए गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू ।।
१६६
३. सम्मद्दिट्ठी सया अमूढ़े अस्थि हु नाणे तवे तवसा धुणइ पुराणपावगं मणवयकायसुसंवुडे जे
(द० १० : ६)
जो क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों का सदा परित्याग करता है, जो जिन-वचनों में धुव्रयोगी ( स्थिर चित्त) होता है, जो निष्किंचन है, जो चांदी-सोना आदि किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता और जो सदा गृहस्थोचित्त कार्यों का परिवर्जन करता है - वह भिक्षु है ।
संजमे य । स भिक्खू ।।
(द० १० : ७ )
जो सम्यग्दृष्टि है, जो सदा अमूढ़ है, जो ज्ञान, तप और संयम में सदा विश्वासी है, जो मन, वचन और शरीर को अच्छी तरह संवृत रखनेवाला है, जो तप द्वारा पुराने पाप-कर्मों को धुन डालता है - वह भिक्षु है ।
४. न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा न य कुप्पे निहुइदिए पसंते । संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ।।
(द० १० : १० )
जो कलह उत्पन्न करनेवाली कथा नहीं कहता, जो किसी पर क्रोध नहीं करता, जो इन्द्रियों को सदा वश में रखता है, जो मन से प्रशान्त है, जो संयम में सदा धुव्रयोगी (स्थिर मन ) है, जो कष्ट के समय आकुल व्याकुल नहीं होता और जिसकी उचित के प्रति उपेक्षा नहीं होती - वह भिक्षु है ।
५. असई वोसद्वचत्तदेहे अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा । पुढवि समे मुणी हवेज्जा अनियाणे अकोउहल्ले य जे स भिक्खू ।। (द० १० : १३)