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महावीर वाणी
३. जे पि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण।
तेसिं पि पत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ।। (द० पा० १३)
जो सम्यक्दर्शन से युक्त पुरुष उन्हें मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज़्जा, गौरव और भय के वश हो उनके चरणों में गिरते हैं उनके बोधि की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि वे पाप का अनुमोदन करते हैं। ४. दुविहं हि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि।।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होइ।। (द० पा० १४)
जिनमें बाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग है, जिनमें मन, वचन और काय तीनों का संयम है, जिनमें ज्ञान है, करणशुद्धि है, भोजन-विशुद्धि है ऐसे साधु पुरुष दर्शन योग्य हैं। ५. दंसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालमुवजुत्ता।
एदे खु वंदणिज्जा जे गुणवादी गुणधराणं ।। (मू० ५६६)
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-इन चार विनयों में जो सदा काल लीन हैं, जो शीलादि गुणों को धारण करनेवाले पुरुषों के गुणों का बखान करनेवाले हैं, वे निश्चय ही वन्दनीय होते हैं। ६. अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि सो ण वंदिज्ज।
दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। (द० पा० २६)
असंयमी को वन्दना नहीं करनी चाहिए। वस्त्रविहीन हो (पर संयमी न हो तो) उसकी भी वंदना नहीं करनी चाहिए। दोनों ही संयम-रहित समान हैं। इनमें कोई भी संयमी नहीं। ७. ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो।
को वंदमि गुणाहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ।। (द० पा० २७)
देह वन्दनीय नहीं होता, न कल और जाति-सम्पन्न ही वन्दनीय होते हैं । गुणहीन न श्रमण होता है और न श्रावक ही। गुणहीन की कौन वंदना करेगा ? ८. समणं वंदेज्ज मेधावी संजतं सुसमाहितं।
पंचमहव्वदकलिदं असंजमजुगंछयं धीरं ।। (मू० ५६५)
हे बुद्धिमान ! तू ऐसे श्रमण की वंदना कर जो आचरण में संयत है, सुसमाहित-ध्यान और अध्ययन में लीन है, अहिंसादि पांच महाव्रतों से युक्त है, असंयम से ग्लानि रखनेवाला है तथा धीर है।