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२८. लाक्षणिक
२५. ण म को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि । । ( द्वा० अ० ३१६)
सम्यग्दृष्टि सोचता है - इस जीव को कोई व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी नहीं देते हैं, न अन्य कोई इस जीव का उपचार करता है। जीव के पूर्व संचित शुभ-अशुभ कर्म ही उपकार - अपकार करते हैं ।
२६. भत्तीए पुज्जमाणो विंतरदेवो वि देदि जदि लच्छी । तो किं धम्मे कीरदि एवं चिंतेइ सदिट्ठी । ।
(द्वा० अ० ३२० )
सम्यग्दृष्टि ऐसा विचार करता है कि यदि भक्ति से पूजा हुआ व्यन्तर देव ही लक्ष्मी को देता है, तो धर्म क्यों किया जाता है ?
२७. एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए ।
सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी । ।
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२८. सम्माइट्ठी जीवो दुग्गइहेदुं ण बंधदे कम्मं ।
बहुवे बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ।।
जो निश्चयपूर्वक सर्व द्रव्य और उनकी सब पर्यायों को आगम के अनुसार जानता है वह जीव शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। जो उनमें शंका करता है वह प्रगट रूप से मिथ्या दृष्टि है।
७. वन्दनीय
१. दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो । ।
( द्वा० अ० ३२३)
(द्वा० अ० ३२७) सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गति के कारण अशुभ कर्म को नहीं बाँधता है और जो अनेक पूर्वभवों में बाँधे हुए पापकर्म हैं उनका भी नाश करता है।
२. जे दंसणेसु भट्ठा पाए ण पाडंति दंसणधराणं ।
ते होंति लल्लमूआ वोही पुण दुल्लहा तेसिं ||
(द० पा० २) जिनवर ने दर्शनमूलक धर्म का उपदेश दिया है। हे सुकर्ण ! उसे सुनकर जो दर्शनहीन है उसकी वन्दना नहीं करनी चाहिए।
(द० पा० १२)
जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होने पर भी अन्य सम्यग्दर्शन के धारकों को अपने चरणों में गिराते हैं - नमस्कार कराते हैं वे परभव में लूले और मूक होते हैं। उन्हें पुनः बोधि की प्राप्त दुर्लभ होती है ।