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________________ ૧૬ महावीर वाणी १६. जो ण कुणदि परतत्तिं पुण पुण भावेदि सुद्धमप्पाणं। इंदियसुहणिरवेक्खो णिस्संकाई गुणा तस्स ।। (द्वा० अ०४२४) जो पुरुष दूसरों की निन्दा नहीं करता, पुनः-पुनः शुद्ध आत्मा की भावना करता है तथा जो इन्द्रियसुखों के प्रति निरपेक्ष होता है, उसके निःशंकित आदि आठ गुण होते हैं। २०. णिस्संकापहुडिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे। जाणेहि जिणमयादो सम्मत्तविसोहया. एदे।। (द्वा० अ० ४२५) ये निःशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्म वैसे ही देव, गुरु और तत्त्वों के विषयों में भी लागू होते हैं। इनको प्रवचन से जानना चाहिए। ये आठ गुण सम्यक्त्व को विशुद्ध करनेवाले हैं। २१. जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमित्तं।। (द्वा० अ० ३१३) जो सम्यग्दृष्टि होता है वह पुत्र-कलत्र आदि सब अर्थों में गर्व नहीं करता है। वह उपशम भावों को भाता है तथा अपने को तृण के समान तुच्छ मानता है। २२. विसयासत्तो वि सया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि। मोहविलासो एसो इदि सव् मण्णदे हेयं।। (द्वा० अ० ३१४) अविरत सम्यग्दृष्टि इन्द्रियविषयों में आसक्त रहता हुआ भी तथा सब आरंभों को करता हुआ भी उन सबको हेय (त्यागने योग्य) मानता है और ऐसा जानता है कि यह मोह का विलास है। २३. उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मियअणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।। (द्वा० अ० ३१५) जो उत्तम गुण-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप आदि के ग्रहण करने में अनुरागी होता है, उन गुणों के धारक उत्तम साधुओं के प्रति विनय संयुक्त होता है और साधर्मियों में अनुरागी होता है वह उत्तम सम्यग्दृष्टि होता है। २४. देहमिलियं पि जीवं णियणाणगुणेण मुणदि जो भिण्णं । जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेइ।। (द्वा० अ० ३१६) यह जीव देह से मिला हुआ है तो भी सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञान-गुण से अपने को देह से भिन्न हीं जानता है। देह जीव से मिला हुआ है तो भी उसको काँचली के समान जानता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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