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________________ २८. लाक्षणिक १२. धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अप्पाणं सुदिढयदि ठिदिकरणं होदि तस्सेव । । ( द्वा० अ० ४२० ) जो धर्म से विचलित होते हुए दूसरे को, धर्म में स्थापित करता है और अपने आत्मा को भी सुदृढ़ करता है, उसके निश्चय से स्थितिकरण गुण होता है । १३. उम्मग्गं गच्वंतं सगं पि मग्गे ठेवेदि जो अप्पा | सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।। १६५ (स० सा० २३४ ) जो आत्मा उन्मार्ग में जाते हुए अपने को भी मार्ग में स्थापित करता है, उस स्थितिकरण गुण से युक्त आत्मा को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । १४. जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरण कुणदि परमसद्धाए । पियवयणं जंपतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ।। (द्वा० अ० ४२१) जो सम्यग्दृष्टि जीव धार्मिकों के प्रति भक्तिवान होता है, उनके अनुसार प्रवृत्ति करता है तथा परम श्रद्धा से प्रिय वचन बोलता है, उसके वात्सल्य गुण होता है। १५. जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्मि । सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।। (स० सा० २३५) जो मोक्षमार्ग में स्थित आचार्य, उपाध्ययाय और साधुओं के प्रति वात्सल्यभाव करता है, उस वात्सल्यभाव युक्त आत्मा को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । १६. जो दसभेयं धम्मंभव्वजणाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि णाणेण पहावणा तस्स ।। ( द्वा० अ० ४२२ ) जो सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञान से दस भेद-रूप विमल धर्म को भव्य जीवों के निकट - प्रगट करता है तथा अपनी आत्मा को दस प्रकार के धर्म से प्रकाशित करता है, उसके प्रभावनागुण होता है। १७. जिणसासणमाहप्पं बहुविहजुत्तीहिं जो पयासेदि। तह तिव्वेण तवेण य पहावणा णिम्मला तस्स ।। (द्वा० अ० ४२३) जो सम्यग्दृष्टि पुरुष अनेक प्रकार की युक्तियों से तथा महान दुर्द्धर तपश्चरण से जिनशासन के माहात्म्य को प्रकाशित करता है, उसके निर्मल प्रभावना गुण होता है। १८. विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।। (स० सा० २३६) जो आत्मा विद्यारूपी रथ में चढ़कर मनरूपी रथ के मार्ग में भ्रमण करता है, उस जिनेश्वर के ज्ञान की प्रभावना करनेवाले पुरुष को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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