SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ महावीर वाणी ५. जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु। सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।। (स० सा० २३०) जो सब कर्मों के फलों में और सब वस्तुधर्मों में आकांक्षा नहीं रखता उस आत्मा को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। ६. दहविहधम्मजुदाणं सहावदुग्गंधअसुइदेहेसु।। जं जिंदणं ण कीरइ णिविदिगिंछा गुणो सो हु।। (द्वा० अ० ४१७) दस प्रकार के धर्म से युक्त मुनि का शरीर स्वभाव से ही दुर्गन्धित और अशुचि होता है। उसकी निन्दा नहीं करना, यही निर्विचिकित्सा गुण है। ७. जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिविदिगिंछो सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो।। (स० सा० २३१) जो आत्मा सभी वस्तुधर्मों के प्रति ग्लानि नहीं करता उस निर्विचिकित्सा गुण के धारण करनेवाले को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। ८. भयलज्जालाहादो हिसारंभो ण मण्णदे धम्मो। जो जिणवयणे लीणो अमूढदिट्ठी हवे सो हु।। (द्वा० अ० : ४१८) जो भय, लज्जा और लाभ से हिंसापूर्ण आरंभ कार्यों को धर्म नहीं मानता और जिन-वचनों में लीन है, वह पुरुष अमूढ़दृष्टि गुण से युक्त है। ६. जो हवइ असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठी सव्वभावेसु। - सो खलु अमूढादिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो।। (स० सा० २३२) जो चेतन आत्मा सब भावों में अमूढ़ है, यथार्थ दृष्टिवाला है, उस अमूढ दृष्टि को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। १०. जो परदोसं गोवदि णियसुकयं णो पयासदे लोए। भवियव्वभावणरओ उवगृहणकारओ सो हु।। (द्वा० अ० ४१६) जो सम्यग्दृष्टि दूसरे के दोषों को गुप्त रखता है, अपने सुकृत को लोक में प्रकाशित नहीं करता फिरता तथा जो ऐसी भावना में लीन रहता है कि जो भवितव्य है वह होता है और वही होगा वह उपगृहण गुण करनेवाला है। ११. जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं। सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।। (स० सा० २३३) जो आत्मा सिद्धभक्ति से युक्त है और मिथ्यात्व, रागादि विभावरूप धर्मों का उपगूहक-विनाशक है, उस उपगूहनकारी को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy