________________
२८. लाक्षणिक
१४. अप्पा गाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्ठा । हिंडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा । ।
(मो० पा० : ६७)
विषयों में विमोहित हुए कुछ मूढ़ मनुष्य आत्मा को जानकर भी आत्म-भावना से भ्रष्ट होने के कारण चार गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं ।
१६३
१५. जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया ।
छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण सदेहो | | ( मो० पा० :
६८)
किन्तु जो विषयों से विरक्त हैं और आत्मा को जानकर आत्मा की भावना भाते हैं, तथा तप और सम्यग्दर्शन आदि गुणों से विशिष्ट हैं, वे योगी चतुर्गतिरूप संसार को छोड़ देते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
६. सम्यग्दृष्टि
१. किं जीवदया धम्मो जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो । इच्चेवमादि-संका तदकरणं जाण णिस्संका ||
( द्वा० अ० : ४१४)
क्या जीवदया धर्म है ? अथवा यज्ञ में पशुओं की हिंसा होती है वह धर्म है ? इत्यादि रूप संशय होना शंका है। ऐसी शंका नहीं करना ही निशंका गुण है।
२. दयभावो वि य धम्मो हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो ।
इदि संदेहाभावो णिस्संका णिम्मला होदि ।। (द्वा० अ० ४१५)
दयाभाव ही धर्म है, हिंसाभाव धर्म नहीं कहलाता - ऐसा संदेह का अभाव निर्मल निःशंकित गुण है।
३. जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे ।
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।। (स० सा० : २२६)
४. जो सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि दूसहतवेहिं ।
मुक्खं समीहमाणो णिक्खंखा जायदे तस्स ।।
जो कर्मबंधसंबंधी मोह को उत्पन्न करनेवाले - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग इन चारों ही पायों को काट डालता है, उस निःशंक चैतन्य आत्मा को सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
(द्वा० अ० ४१६)
जो सम्यग्दृष्टि दुर्द्धर तप से मोक्ष की ही वांछा करता है, स्वर्गसुख के लिए धर्म का आचरण नहीं करता है, उसके निःकांक्षित गुण होता है।