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________________ १६२ महावीर वाणी ७. इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं। झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेणं ।। (मो० पा० ३२) ऐसा जानकर योगी सब प्रकार के व्यवहार को सर्वथा छोड़ देता है और जैसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है उसी प्रकार से परमात्मा का ध्यान करता है। ८. परमप्पयं झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । णादियदि णवं कम्मं णिद्दिठं जिणवरिंदेहिं।। (मो० पा० : ४८) परमात्मा का ध्यान करनेवाला योगी कर्मरूपी महामल के ढेर से मुक्त हो जाता है तथा नये कर्मों को ग्रहण नहीं करता, ऐसा जिनवर देव ने कहा है। 5. होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ। झायंतो अप्पणं परमपयं पावए जाई।। (मो० पा० : ४६) इस प्रकार चारित्र में दृढ़ होकर और मन में दृढ़ सम्यग्दर्शन की भावना लेकर आत्मा का ध्यान करनेवाला योगी परमपद मोक्ष को प्राप्त करता है। १०. उद्घद्धमज्झलोए केई मज्झं ण अहयमेगागी। इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ।। (मो० पा० : ८१) ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में मेरा कोई नहीं है, मैं अकेला ही हूँ, इस भावना से योगी शाश्वत स्थान-मोक्ष को प्राप्त करते हैं। ११. णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं।। (मो० पा० : ८३) निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है कि आत्मा में आत्मा के द्वारा अच्छी तरह से लीन आत्मा ही सम्यक् चारित्र का पालक योगी है, और वही निर्वाण को प्राप्त करता है। १२. दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणं दुक्खं। भावियसहावपुरिसो विसएसु विरच्चए दुक्खं ।। (मो० पा० : ६५) बड़ी कठिनता से आत्मा को जाना जाता है। आत्मा को जानकर उसी में भावना का होना और भी कठिन है और आत्मा की भावना करनेवाला पुरुष भी कठिनता से ही विषयों से विरक्त होता है। १३. ताम ण णज्जइ अप्पा विसएस णरो पवट्टए जाम। विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाण।। (मो० पा ६६) जब तक मनुष्य विषयों में लीन रहता है तब तक आत्मा को नहीं जानता। जिसका चित्त विषयों से विरक्त है वह योगी ही आत्मा को जानता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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