SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८. लाक्षणिक १६१ ५. योगी १. जो देहे णिरवेक्खो णिबंदो णिम्ममो णिरारंभो। आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। (मो० पा० : १२) जो योगी शरीर के विषय में निरपेक्ष (उदासीन) है, निर्द्वन्द्व है, ममत्वरहित है, आरंभ-रहित है और आत्म-स्वभाव में लीन है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। २. जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं। जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ।। (मो० पा० २०). योगी को जिनवर भगवान द्वारा बतलाए हुए मार्ग के अनुसार ध्यान में शुद्ध आत्मा को ध्यान चाहिए। जिस ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, क्या उससे स्वर्गलोक की प्राप्ति नहीं हो सकती? ३. मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पण्णं चएवि तिविहेण। मोणव्वएण जोइ जोयत्थो जोयए अप्पा।। (मो० पा० : २८) मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य को मन, वचन, काय से त्यागकर योग में स्थित योगी मौनव्रतपूर्वक आत्मा का ध्यान करता है। ४. जं मया दिस्सदे रूवं तण्ण जाणेइ सव्वहा। जाणगं दिस्सदे णंतं तम्हा जंपेमि केण हं।। (मो० पा० : २६) क्योंकि वह सोचता है कि जो रूप (शरीर) मैं देखता हूँ वह (अचेतन होने से) कुछ भी नहीं जानता और जो जाननेवाला आत्मा है वह दिखाई नहीं देता, तब मैं किससे बोलूं ? ५. सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं। जोयत्था जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ।। (मो० पा० : ३०) योग में स्थित योगी सब कर्मों के आस्रव को रोककर पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है और फिर (केवलज्ञान होकर) सब भावों को जानता है, ऐसा जिनदेव ने कहा है। ६. जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।। (मो० पा० : ३१) जो योगी लोक-व्यवहार में सोता है वह आत्मिक-कार्य में जागता है, और जो लोक-व्यवहार में जागता है वह आत्मिक-कार्य में सोता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy