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१०. विरज्जमाणस्स य इंदियत्था सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सव्वे वि मणुन्नयंवा निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा । ।
महावीर वाणी
( उ० ३२ : १०६)
जो विरक्त है उसके लिए ये सब नाना प्रकार के शब्दादि इन्द्रिय-विषय मनोज्ञता या अमनोज्ञता का भाव पैदा नहीं करते ।
११. कोहं च माणं च तहेव मायं लोहं दुगुंछं अरइं रई च । हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। आवज्जई एवमणेगरूवे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो । अन्ने य एयप्पभवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से || (उ० ३२ : १०२-३)
जो काम - गुणों में आसक्त होता है वह क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुष- वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक वेद आदि विविध भाव और इसी तरह अन्य विविध रूपों को- विकारों तथा अन्य भी उनसे उत्पन्न विशेष परिणामों को प्राप्त होता है और वह करुणा, दीनता, लज्जा और घृणा के भावों का पात्र बन जाता है। १२. स वीयरागो कयसव्वकिच्चो खवेइ नाणावरणं खणेणं ।
तवेह जं दंसणमावरेइ जं चऽंतरायं पकरेइ
कम्मं ।।
( उ० ३२ : १०८ )
जो वीतराग है, वह सर्व कृतकृत्य हो क्षण मात्र में ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर देता है और इसी तरह से जो दर्शन को ढँकता है उस दर्शनावरणीय और विघ्न करता है, उस अन्तराय कर्म का भी क्षय कर डालता है।
१३. सव्वं तवो जाणइ पासए य अमोहणे होइ निरंतराए
अणासवे झाणसमाहिजुत्ते आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ।।
( उ० ३२ : १०६)
तदन्तर वह आत्मा सब कुछ जानती देखती है तथा मोह और अन्तराय से सर्वथा रहित हो जाती है । फिर आस्रवों से रहित ध्यान और समाधि से युक्त वह विशुद्ध दशा को प्राप्त आत्मा, आयु समाप्त होने पर मोक्ष को प्राप्त करती है।
१४. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जं बाहई सययं जंतुमेयं । दोहाभयविप्पमुक्को पसत्थो तो होइ अच्चंतसुही कयत्थो । । (उ० ३२ : ११० )
फिर वह सिद्ध आत्मा सर्व दुःखों से, जो जीव को सतत पीड़ा देते हैं, मुक्त हो जाती है। दीर्घ रोग से विप्रमुक्त हो वह कृतार्थ आत्मा अत्यन्त प्रशस्त और सुखी होती है।