________________
२८. लाक्षणिक
૧૪૬
५. कायस्स फासं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीतरागो।।
___ (उ० ३२ : ७४) जो काय का ग्रहण-विषय है, उसे स्पर्श कहा गया है (काय का विषय है वह स्पर्श है)। जो स्पर्श राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा गया है। जो स्पर्श द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा गया है। जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में सम होता है-समान भाव रखता है-वह वीतरांग है। ६. मणस्स भावं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो।।
(उ० ३२ : ८७) जो मन का ग्रहण-विषय है, उसे भाव कहा गया है। (मन का जो विषय है वह भाव है)। जो भाव राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा गया है। जो भाव द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा गया है। जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ भावों में सम होता है-समान भाव रखता है-वह वीतराग है। ७. एविंदिपत्था य मणस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि।।
(उ० ३२ : १००) इस प्रकार इन्द्रियों के और मन के विषय रागी मनुष्य को ही दुःख के हेतु होते हैं। ये ही विषय वीतराग को कदापि किंचित् भी-थोड़ा भी-दुखी नहीं कर सकते। ८. सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।।
__ (उ० ३२ : ४७) शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और भाव इनके विषयों में विरक्त पुरुष शोकरहित होता है। वह इस संसार में रहता हुआ भी दुःख-समूह की परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं होता जिस तरह कमलिनी का पत्ता जल से। ६. न कामभोगा समयं उति न यावि भोगा विगई उति। जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ।।
(उ० ३२ : १०१) कामभोग-शब्द, रूप आदि विषय समभाव को प्राप्त नहीं कराते-उसके हेतु नहीं हैं और न ये विकार को प्राप्त कराते हैं-उसके हेतु हैं। किन्तु जो उनमें परिग्रह (राग अथवा द्वेष बुद्धि) करता है, वही उन विषयों में मोह को प्राप्त होता है।