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२८. लाक्षणिक
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वह गौरव (ऋद्धि, रस, सुख का गर्व ), कषाय (क्रोध- -मान-माया- -लोभ), दण्ड (मन, वचन, काय की दुष्प्रवृत्ति), शल्य (माया, निदान, मिथ्यात्व), भय और हर्ष-शोक से निवृत्त होता है । वह फल की कामना नहीं करता और बन्धन-रहित होता है।
५. अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ । वासीचंदणकप्पो य असणे अणसणे तहा । ।
(उ०१६ : १२)
वह इहलोक (के सुखों) की इच्छा नहीं करता, न परलोक (के सुखों) की इच्छा करता है । वसूले से छेदा जाता हो या चन्दन से लेपा जाता, आहार मिलता हो या न मिलता हो, वह सब स्थितियों में सम होता है।
६. अप्पसत्थेहिं दारेहिं सव्वओ पिहियासवे । अज्झप्पज्झाणजोगेहिं पसत्थदमसासणे ।।
(उ० १६ : ६३)
मोक्षार्थी पुरुष अप्रशस्त द्वार (कर्म आने के हेतु - हिंसादि) को चारों ओर से रोक कर अनास्रव होता है तथा आध्यात्मिक ध्यानयोग से प्रशस्त जितेन्द्रिय और आत्मानुशासित होता है।
७. सुक्कझाणं झियाएज्जा अणियाणे अकिंचणे ।
वोसट्टकाए विहरेज्जा जाव कालस्स पज्जओ । ।
( उ० ३५ : १६)
ऐसा मोक्षार्थी शुक्ल ध्यान का अभ्यास करता रहे। जीवन पर्यन्त फल की कामना न करता हुआ अकिंचन और त्यक्त-देह होकर रहे ।
८. एवं नाणेण चरणेण दंसणेण तवेण य । भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं । । निज्जूहिऊण आहारं कालधम्मे उवट्टिए । जहिऊण माणुस बोंदिं पहू दुक्खे विमुच्चई ।।
( उ० १६ : ६४)
(उ० ३५ : २० )
इस तरह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और शुद्ध भावना से आत्मा को भलीभाँति भावित करता हुआ मोक्षार्थी कालधर्म - मृत्यु के उपस्थित होने पर आहार का परित्याग कर, इस मनुष्य शरीर को छोड़कर सर्व दुःखों से मुक्त होता है।
६. निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो । संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिव्वुए ।।
(उ० ३५ : २१)
ममतारहित, अहंकाररहित, आस्रवरहित वीतराग पुरुष केवलज्ञान को प्राप्त कर
हमेशा के लिए परिनिवृत्त (मुक्त) होता है ।