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________________ २८. लाक्षणिक १८७ वह गौरव (ऋद्धि, रस, सुख का गर्व ), कषाय (क्रोध-‍ -मान-माया- -लोभ), दण्ड (मन, वचन, काय की दुष्प्रवृत्ति), शल्य (माया, निदान, मिथ्यात्व), भय और हर्ष-शोक से निवृत्त होता है । वह फल की कामना नहीं करता और बन्धन-रहित होता है। ५. अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ । वासीचंदणकप्पो य असणे अणसणे तहा । । (उ०१६ : १२) वह इहलोक (के सुखों) की इच्छा नहीं करता, न परलोक (के सुखों) की इच्छा करता है । वसूले से छेदा जाता हो या चन्दन से लेपा जाता, आहार मिलता हो या न मिलता हो, वह सब स्थितियों में सम होता है। ६. अप्पसत्थेहिं दारेहिं सव्वओ पिहियासवे । अज्झप्पज्झाणजोगेहिं पसत्थदमसासणे ।। (उ० १६ : ६३) मोक्षार्थी पुरुष अप्रशस्त द्वार (कर्म आने के हेतु - हिंसादि) को चारों ओर से रोक कर अनास्रव होता है तथा आध्यात्मिक ध्यानयोग से प्रशस्त जितेन्द्रिय और आत्मानुशासित होता है। ७. सुक्कझाणं झियाएज्जा अणियाणे अकिंचणे । वोसट्टकाए विहरेज्जा जाव कालस्स पज्जओ । । ( उ० ३५ : १६) ऐसा मोक्षार्थी शुक्ल ध्यान का अभ्यास करता रहे। जीवन पर्यन्त फल की कामना न करता हुआ अकिंचन और त्यक्त-देह होकर रहे । ८. एवं नाणेण चरणेण दंसणेण तवेण य । भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं । । निज्जूहिऊण आहारं कालधम्मे उवट्टिए । जहिऊण माणुस बोंदिं पहू दुक्खे विमुच्चई ।। ( उ० १६ : ६४) (उ० ३५ : २० ) इस तरह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और शुद्ध भावना से आत्मा को भलीभाँति भावित करता हुआ मोक्षार्थी कालधर्म - मृत्यु के उपस्थित होने पर आहार का परित्याग कर, इस मनुष्य शरीर को छोड़कर सर्व दुःखों से मुक्त होता है। ६. निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो । संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिव्वुए ।। (उ० ३५ : २१) ममतारहित, अहंकाररहित, आस्रवरहित वीतराग पुरुष केवलज्ञान को प्राप्त कर हमेशा के लिए परिनिवृत्त (मुक्त) होता है ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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