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महावीर वाणी
२. तीव्र-मंद कषायी
१. सव्वत्थ वि पियवयणं दुब्बयणे दुज्जणे वि खमकरणं ।
सव्वेसिं . गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठता।। (द्वा० अ० ६१)
सब जगह प्रिय वचन, दुर्वचन सुनकर दुर्जन को भी क्षमा करना, सब जीवों के गुण ही ग्रहण करना-ये मंदकषायी पुरुष के दृष्टान्त हैं। २. अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं ।
वेरधरणं च सुइरं तिव्वकसायाण लिंगाणि।। (द्वा० अ० ६२)
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष ढूँढ़ने का स्वभाव और बहुत समय तक वैर धारण करना-ये तीव्र कषायवाले पुरुष के चिन्ह हैं।
३. मोक्षार्थी १. पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य।
सभिंतरबाहिरओ तवोकम्मंसि उज्जुओ।। (उ० १६ : ८८)
मोक्षार्थी पुरुष पाँच महाव्रतों से युक्त, पाँच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त और बाह्य और अभ्यन्तर तप-कर्म में उद्यत होता है। २. निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो।
समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु या! (उ० १६ : ८६)
वह ममत्वरहित, अहंकाररहित, बाह्य और अभ्यंतर संगरहित तथा त्यक्त-गौरव होता है। वह सर्व त्रस और स्थावर प्राणियों के प्रति समभाव रखनेवाला होता है।
३. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। . समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ।। (उ० १६ : ६०)
वह लाभ-अलाभ, सुख-दुःख जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान-सब में सम होता है।
४. गारवेसु कसाएसु दण्डसल्लभएसु य।
नियत्तो हाससोगाओ अनियाणो अबंधणो।।
(उ० १६ : ६१)