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लाक्षणिक
१. त्यागी
१. वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति न से चाइ ति दुच्चइ ।।
(द०२ : २) जो वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियों और पलंग आदि भोग्य पदार्थों का परवशता से अथवा उनके अभाव में सेवन नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता।
२. जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिट्ठिकुव्वई । साहीणे चयइ भोए से हु चाइ त्ति वुच्चइ ||
(द०२ : ३)
त्यागी वह कहलाता है जो कांत और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी उन्हें पीठ दिखाता है और स्वाधीनतापूर्वक उनका त्याग करता है।
३. जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुव्वदे सुरिंदो वि । लड्डु व भक्खदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं । ।
जो
जो पुरुष विद्यमान वस्तु को छोड़ता है, उसके व्रत की सुरेन्द्र भी प्रशंसा करता है। जो मनमोदक को खाता है-अपने पास नहीं है उस वस्तु का त्याग करता है उसके व्रत तो होता है परन्तु वह थोड़ा ही लाभ पहुँचानेवाला होता है।
४. जो परिवज्जइ गंथं अब्मंतरबाहिरं च साणंदोः । पावं ति मण्णमाणे णिग्गंथो सो हवे णाणी ।।
( द्वा० अ० ३५१)
( द्वा० अ० ३८६ )
जो अभ्यंतर और बाह्य दो प्रकार के परिग्रह को, पाप का कारण मानता हुआ आनन्दपूर्वक छोड़ता है वह निष्परिग्रही ही त्यागी होता है ।
५. बाहिरगंथविहीणा दलिद्दमणुआ सहावदो होंति । अब्भंतरगंथ पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं । ।
( द्वा० अ० ३८७)
दरिद्र मनुष्य स्वभाव से ही बाह्य परिग्रह से रहित होते हैं, पर इससे वे त्यागी नहीं होते। क्योंकि अभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता है अर्थात् विरले ही समर्थ होते हैं।