________________
१८४
महावीर वाणी
४. हिंसा-हेतु बोध
१. अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचकमादीसु।।
समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतत्तियत्ति मदा।। (प्रव० ३: १६)
श्रमण की सोने, बैठने, खड़े होने और चलने आदि में जो असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति है, वह सदा अखंडित रूप से हिंसा मानी गयी है।
२. मरदु व जियदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। . पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। (प्रव० ३: १७)
जीव मरे अथवा न मरे अयतनाचार पूर्वक क्रिया करनेवाले साधक के निश्चित रूप से हिंसा होती है। जो समितियों से समित है उस अप्रमादी साधक के हिंसा हो जाने मात्र से बंध नहीं होता। ३. अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरूलेवो।।
___ (प्रव० ३ : १८) जो श्रमण अयतनाचारी है, वह छहों ही कायों के जीवों का घातक माना गया है। किन्तु यदि वह सर्वदा सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करता है, तो जल में कमल की तरह कर्म- बन्ध-रूपी लेप से रहित रहता है। ४. जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो।
णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।। (मू० १०१४)
यतना से आचरण करनेवाला, दया पर दृष्टि करनेवाला साधु नवीन कर्मों का बंध नहीं करता और पुराने कर्म का क्षय कर डालता है। ५. तम्हा चेट्ठिदुकामो जइया तइया भवाहिं तं समिदो।
समिदो हु अण्ण णदियदि खवेदि पोराणयं कम्मं ।। (मू० ३३०)
अतः हे मुनि ! जब गमन आदि करने की इच्छा हो तब तू समिति से युक्त हो; क्योंकि जो मुनि समिति से युक्त होता है वह नवीन कर्मों को तो ग्रहण नहीं करता और पुराने कर्मों का क्षय करता है।
१. भग० आ० १२०४।