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२७. हेतु-विज्ञान
इस संसार में जो-जो जीव जिस-जिस पर्याय को ग्रहण करता है, वह पर्याय वह राग, द्वेष, मोह के वश ग्रहण करता है, यह जानना चाहिए। ५. अत्थस्स जीवियस्स य जिभोवत्थाण कारणं जीवो।
मरदि य मारावेदि य अणंतसो सव्वकालमि।। (मू० ६८७)
अर्थ, जीवन, आहार और काम के कारण यह जीव आप मरता है और सर्वकाल में अन्य प्राणियों को भी अनंत बार मारता है। ६. जिभोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे।
पत्तो अणंतसो तो जिभोवत्थे जह दाणिं ।। (मू० ६८८)
इस अनादि संसार में इस जीव ने जिहा-इन्द्रिय और स्पर्शन-इन्द्रिय के कारण ही अनंत बार दुःख पाया है। इसलिए तू जिहा और उपस्थ-इन दोनों इन्द्रियों को जीत ।
३. कषाय-हेतु बोध १. जह इंधणेहिं अग्गी वढ्ढइ विज्झाइ इंधणेहिं विणा। गंथहि तह कसाओ वढ्ढइ विज्झाई तेहिं विणा ।।
(भग० आ० १६१३) जैसे आग ईंधन से बढ़ती है और ईंधन के बिना बुझ जाती है, उसी प्रकार कषायरूपी अग्नि परिग्रहरूपी ईंधन से बढ़ती है और परिग्रह के न होने से वह बुझ जाती है। २. जह पत्थरो पडतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंक। खोभेइ पसंतं पि कसायं जीवस्स तह गंथो।।
(भग० आ० १६१४) जैसे तालाब में गिरा हुआ पत्थर प्रशान्त पंक को क्षुभित कर देता है, उसी तरह परिग्रह जीव के प्रशान्त कषाय को भी क्षुभित कर देता है। ३. उड्डहणा अदिचवला अणिग्गहिदकसायमक्कडा पावा। गंथफललोलाहिदया णासंति हु संजमारामं ।।
(भग० आ० १४०३) संयम का हरण करनेवाला अति चंचल और जिसका हृदय परिग्रह-रूपी फल के लिए लोलुप है, ऐसा अनियंत्रित कषायरूपी पापी बानर संयम-रूपी बगीचे को नष्ट कर देता है।