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महावीर वाणी
जो कषायसहित होता हुआ विषय-सुख की तृष्णा से पुण्य की अभिलाषा करता है, उसके विशोधि दूर है और पुण्य विशोधिमूलक है, अतः विशोधि के बिना पुण्य नहीं होता। ७. पुण्णासाए ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती।
इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आयरं कुणह। (द्वा० अ० ४१२)
पुण्य की कामना से पुण्यबंध नहीं होता। निरीह वांछारहित पुरुष के पुण्य होता है, ऐसा जानकर पुण्य में भी आदर बुद्धि मत करो। ८. पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसाएहि परिणदो संतो।
तम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा।। (द्वा० अ० ४१३)
जीव मंदकषायरूप परिणमन करता हुआ पुण्यबंध करता है, इसलिए पुण्यबंध का कारण मंदकषाय है, न कि वांछा।
२. पर्याय-हेतु बोध १. अकसायं तु चरित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि।
उवसमदि जह्मि काले तक्काले संजदो होदि।। (मू० ६८२)
कषाय का अभाव चारित्र है। जो कषाय के वश में होता है, वह असंयमी हो जाता है। पुरुष जिस समय कषाय का उपशम करता है तब वह संयमी होता है। २. पच्चयभूदा दोसा पच्चयभावेण णत्थि उप्पत्ती।
पच्चयभावे दोसा णस्संति णिरासया जहा वीयं ।। (मू० ६८४)
दोष, मोह, राग, द्वेषादिक से उत्पन्न होते हैं। मोह आदि के अभाव में दोषों की उत्पत्ति नहीं होती। उनके अभाव में दोष निराधार बीज की तरह विनाश को प्राप्त होते हैं। ३. हेदू पच्चयभूदा हेदुविणासे विणासमुवयंति।
तह्मा हेदुविणासो कायवो सव्वसाहूहिं।। (मू० ६८५)
हेतु से उत्पन्न दोष हेतु के विनाश को प्राप्त होते हैं। इसलिए सब को हेतुओं का नाश करना चाहिए। ४. जं जं जे जे जोवा पज्जायं परिणमंति संसारे।
रायस्स य दोसस्स य मोहस्स वसा मुणेयव्वा।। (मू० ६८६)