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हेतु-विज्ञान
१. पुण्य-बंध विज्ञान
१. पावेण जणो एसो दुक्कम्मवसेण जायदे सव्वो । पुणरवि करेदि पावं ण य पुण्णं को वि अज्जेदि । ।
( द्वा० अ० ४७ ) कोई भी दुखी मनुष्य पाप तथा दुष्कर्म से दुखी होता है तब भी पाप ही करता है शुभ योग, ध्यान आदि तप से पुण्य का अर्जन नहीं करता, यह आश्चर्य है । २. विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो । उवसमभावे सहिदो जिंदणगरहाहिं संजुत्तो ।। ( द्वा० अ० ४८ ) सम्यग्दृष्टि, व्रतों से संयुक्त, उपशम भाव से सम्पन्न, स्व-निंदा और गर्हा से 'युक्त ऐसा बिरला ही जीव है, जो शुभ योग से पुण्य का अर्जन करता है।
३. पुण्णजुदस्स वि दीसदि इट्ठविओयं अणिट्ठसंजोयं ।
भरहो वि साहिमाणो परिज्जिओ लहुयभाएण ।। ( द्वा० अ० ४६ )
पुण्य से युक्त पुरुष के भी इष्ट-संयोग देखा जाता है। अभिमान सहित भरत चक्रवर्ती भी छोटे भाई बाहुबली से पराजित हुए ।
४. सयलट्ठविसयजोओ बहु पुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि ।
तं पुणं पिण कस्स वि सव्वं णिच्छिदं लहदि । । ( द्वा० अ० ५०)
समस्त पदार्थ और इन्द्रिय-विषयों का योग बड़े पुण्यवानों को भी पूर्ण रूप से नहीं होता है। ऐसा पुण्य किसी के भी नहीं है, जिससे सब ही मनवांछित बातें मिल जाए ।
५. पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि ।
पुण्णं सुग्गईहेदुं
पुण्णखएणेव
णिव्वाणं || (द्वा० अ० ४१०)
जो पुण्य को भी चाहता है वह पुरुष संसार को ही चाहता है, क्योंकि पुण्य सुगति के बंध का हेतु है और मोक्ष पुण्य के भी क्षय से ही होता है ।
६. जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए । दूरे तस्स विसोही विसोहीमूलाणि पुष्णाणि । ।
( द्वा० अ० ४११ )