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६. सम्भाववक्कविवसं
सावज्जारंभकारकं ।
दुम्मित्तं तं विजाणेज्जा उभयो लोगविणासणं । ।
महावीर वाणी
(इसि० ३३ : ११)
अपने वक्र स्वभाव से विवश होकर सावद्य आरंभ करनेवाले को दुर्मित्र समझना क्योंकि वह दोनों लोकों का विनाश करता है । धीरं सावज्जारंभवज्जकं ।
तं मित्तं सुट्टु सेवेज्जा उभओ लोकसुहावहं ।।
१०. सम्मत्तणिरयं
(इसि० ३३ : १२)
सम्यक्त्व-निरत, सावद्य आरंभ के त्यागी ऐसे धैर्यशील मित्र की भली प्रकार सत्संग करनी चाहिए। उसकी संगति उभय लोक में सुखप्रद होती है।