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________________ १७६ महावीर वाणी ६. वड्ढादे बोही संसग्गेण तध पुणो विणस्सेदि। संसग्गविसेसेण दु उप्पलगंधो जहा गंधो।। (मू० ६५४) संगति से ही बोधि की वृद्धि होती है और संगति से ही नष्ट हो जाती है। जैसे कमलादि की गंध के संसर्ग से जल शीतल और सुगंधित हो जाता है ओर अग्नि आदि के संबंध से उष्ण तथा विरस। ७. संसग्गितो पसूयंति दोसा वा जइ वा गुणा। वाततो मारुतस्सेव ते ते गंधा सुहावहा।। (इसि० ३३ : १३) दोष अथवा गुण संसर्ग से ही पैदा होते हैं। वायु जिस ओर बहती है वहां की सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध को ग्रहण कर लेती है। ८. संपुण्णवाहिणीओ वि आवन्ना लवणोदधिं । पप्पा खिप्पं तु सव्वा पि पावंति लवणत्तणं।। (इसि० ३३ : १४) सभी नदियाँ लवण-समुद्र में मिलती हैं और वहाँ पहुँचते ही सभी अपनी स्वाभाविक मधुरता को छोड़कर खारापन प्राप्त कर लेती हैं। ६. समस्सिता गिरि मेरुं णाणावण्णा वि पक्खिणो। सव्वे हेमप्पभा होंति तस्स सेलस्स सो गुणो।। (इसि० ३३ : १५) विविध वर्णवाले पक्षीगण जब सुमेरु पर्वत पर पहुँचते हैं तो सभी स्वर्ण प्रभा युक्त हो जाते हैं, यह उस पर्वत की ही विशिष्टता है। १०. सम्मतं च अहिंसं च सम्मं णच्चा जितिंदिए। कल्लाणमित्तसंसग्गिं सदा कुवेज्ज पंडिए।। (इसि० ३३ : १७) जितेन्द्रिय और प्रज्ञाशील साधक सम्यक्त्व और अहिंसा को सम्यक् प्रकार से जान कर सदैव कल्याणकारी मित्र का ही साथ करे। २. संगति-योग्य १. दुभासियाए भासाए दुक्कडेण य कम्मुणा। बालमेतं वियाणेज्जा कज्जाकज्ज-विणिच्छए।। (इसि० ३३ : १) दुर्भाषित वाणी, दुष्कृत कर्म तथा कार्याकार्य के विनिश्चय के द्वारा यह बाल (अज्ञानी) है, ऐसा समझा जा सकता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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